SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तब स्वयम् विश्व-तत्त्व जैसे वाक्मान होने को छटपटा उठा । अणु-परमाणु रो आये । समस्त लोकालोक एक अन्तहीन आर्तनाद में फूट पड़े। और ठीक उसके उत्कट छोर पर प्रभु समवसरण में उतर आये । लोक के इस पुंजीभूत वैभव को अपनी दृष्टि और चरण-रज से कृतार्थ किया । दृष्टि मात्र की केन्द्र गन्धकुटी में अब वे विश्वम्भर आसीन हैं । लेकिन फिर भी अवाक् ! आश्चर्य, महाश्चर्य, अपूर्व अपवाद । सार्वलौकिक नियम-विधान का ऐसा भंग कभी न हुआ। अनन्त ज्ञान के समुद्र अन्तरिक्ष के मर्म में घुमड़ रहे हैं । सत्ता जैसे टूट पड़ने की अनी पर है । सत्ता-पुरुष मौन है । निस्तब्ध है। निस्पन्द है। पर भीतर जैसे उसके सूरज उबल रहे हैं, चन्द्रमा कसक रहे हैं । फिर भी वह चुप है, और चुप रहने को विवश है। कौन समझेगा त्रिलोकीनाथ के इस दर्द को? यह निखिल के दर्दी का दरद है। इसे कोई योगी नहीं समझ सकता । कोई कवि ही इसका समवेदी और संगी हो सकता है । अरे, त्रिलोक का सूर्य आज कुछ बोलना चाहता है । वह बोलने को बेबस है। और अणु-परमाणु सुनने को व्याकुल हैं। · · · पर · · पर, कहाँ है वह गणधर, कहाँ है वह पात्र, वह माध्यम, वह संक्रान्ता, जो सर्वज्ञ की अनन्तिनी वाणी को ग्रहण कर सके, झेल सके, सहन कर सके, प्रसारित कर सके, सर्व चराचर तक पहुंचा सके । उस निरक्षरी दिव्य-ध्वनि को अक्षर, शब्द, भाषा में सम्प्रेषित कर सके ? कहाँ है वह मर्मी, जो 'मुझे पहचान सके, समझ सके, सुन सके, सबको सुना सके ?' असंख्य गान-नृत्य लीन, जय-जयकार करते देवेन्द्रों और माहेन्द्रों से परिवरित भगवान अधर में निस्तब्ध हैं । गन्धकुटी की सर्वोपरि सीढ़ी पर बैठा सौधर्मेन्द्र अवाक्, उदग्र भगवान की ओर ताक रहा है। कोई ध्वनि नहीं, स्पन्दन नहीं । शक्रेन्द्र ने व्यग्र हो कर समवसरण के तमाम मण्डलों पर निगाह डाली। उत्सव और वाद्यों के सारे कोलाहल में जैसे एक कसक भरी खामोशी घुल रही है। धूपायनों से उठती धूम्र-लहरियों में अप्सराओं के केशपाश विक्षुब्ध नागिनियों से छटपटा रहे हैं । इन्द्राणियों, देवांगनाओं, किन्नरियों की नाचती नूपुर-झंकारें रो आयी हैं। चारों दिशाओं के गोपुरों के आरपार, हजारों आरों वाले हिरण्य-रत्निम धर्मचक्रों की सरणियाँ जैसे लोकान्त तक चली गयी हैं । वे चलायमान होने को अधीर हैं। पर कहाँ हैं उनका चक्रेश्वर ? कौन उनका परिचालन करे ? कौन इस अराजक विश्व में स्वभाव-धर्म का चक्र-प्रवर्तन करे ? सारथी वल्गा खींच कर, हाथ कन्धे पर टिकाये, उस पर सर ढाले है । रथासीन त्रिलोकपति का इंगित नहीं मिला है। लोक का रथ चले तो कैसे चले ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy