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३५.
मूषक मार्जारी की कोख में चिपक कर जैसे सदा को निर्भय हो गये हैं । जलचर, थलचर, नभचर, सारे ही तियंच प्राणि एक-दूसरे में रूपान्तरित होते-से दिखायी पड़ रहे हैं । आर्य ऋषभ विस्मय से अवाक् हैं, कि ये अज्ञानी जीव ज्ञान के गर्वी मनुष्य को पराजित कर अपनी निर्दोषता के कारण, भगवान के अधिक प्रियपात्र हो गये हैं । वे गन्धकुटी की रेलिंगों पर तीर्थंकर के चिह्न बन कर प्रतिष्ठित हो गये हैं ।
और ये चारों निकाय और चौरासी लाख योनियाँ उदग्र हैं । स्तब्ध हैं । कैवल्य - सूर्य की दिव्यध्वनि सुनने के लिये । कण-कण में जैसे कान उग आये हैं । दिशाएँ चौकन्नी और उत्कण्ठित हैं । लेकिन सर्वज्ञ प्रभु, त्रिकालेश्वर भगवान मौन हैं। लोक के पुराण और इतिहास में अपूर्व है यह घटना । यह एक महाश्चर्य है । महासत्ता का नियम है, कि कैवल्य लाभ होते ही तीर्थंकर वाक्मान हो जाते हैं । उनके तपश्चर्याकाल का वर्षों व्यापी अखण्ड मौन हठात् भंग हो जाता है । कैवल्य-सूर्य के उदय होते ही, अगम-निगम के ज्ञान-निर्झर सर्वज्ञ प्रभु के श्रीमुख से फूट पड़ते हैं ।
किन्तु यह कैसा अपलाप घटित हुआ है, द्वापर युग के इस अन्तिम पर्व में ! कि केवली हो कर भी तीर्थंकर महावीर निर्वाक् हैं । ऋजुबालिका के तट पर देवेन्द्रों के समवसरण उन्हें पाने में असमर्थ रहे । त्रिलोकी नाथ गन्धकुटी से पलायन कर गये । बह उनके पीछे दौड़ती फिरी, वे हाथ न आये । ज्ञान की त्रिपदी वहाँ हवा में गूंजती हुई व्यर्थ हो गयी । भोग मूर्च्छित देव सृष्टियाँ उससे प्रतिबुद्ध न हो सकीं, जाग न सकीं ।
फिर भगवान विद्युत्-तरंग की तरह मध्यम पावा के होम धूम्राच्छन्न आकाश में संचरित हुए । विश्व-तत्त्व यज्ञ के हुताशन पर उच्छ्वसित हुआ। पर ज्ञान-गर्व से प्रमत्त ब्राह्मणों की खोखली मन्त्र -ध्वनियों में वह खो गया । क्या आज के इस अराजक लोक में अर्हत् को पहचानने वाला कोई नहीं है ?
तब भगवान विपुलाचल के शिखर पर आ खड़े हुए। एकाकी, अदृश्य, निस्तब्ध । ' और उस निस्तब्धता में अनहद नाद घुटता रहा। पंचशैल देख कर थरथराते रहे। तब विपल मात्र में ही असंख्य देवलोक यहाँ उत्सव - कोलाहल के साथ उतर आये। त्रिलोकः और त्रिकाल का सारांशिक ऐश्चर्य यहाँ सर्वसत्ताधीश महावीर के समवसरण में मूर्त हो गया । चारों निकाय और चौरासी लाख योनियाँ यहाँ उमड़ आयीं । हर प्राण, हर साँस, हर दृष्टि प्रभु के दर्शन को आकुल उदग्र थी । क्षण, मुहूर्त, घड़ियाँ बीत रही थीं । समस्त लोक प्रतीक्षामान था; किन्तु प्रभु का वह अमिताभ मुख-मण्डल गन्धकुटी के कमलासन पर उदय नहीं हो रहा था ।
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