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'मैं . . . ? मैं . . . मैं न होऊँ तो फिर शंका कौन किस पर करे ?' 'तुम्हारा प्रश्न ही तुम्हारा उत्तर है, वत्स । अपने को स्वयम् सुनो।'
गहन विश्रब्धता व्याप गयी । वाक् परावाक् में लीन हो गये । अखण्ड मंडलाकार ओंकार ध्वनि फिर निखिल में गुंजायमान होने लगो ।
साष्टांग प्रणिपात में से उठ कर बोले गौतम : 'मैं निःशंक हुआ, भगवन् ।' 'तुम और अधिक स्वयम् आप हुए, गौतम । अप्प दीपोभव ।' 'किन्तुः ..' 'जानता हूँ, तुम वेद-वेदान्त के पारगामो हो।' 'वेदमूर्ति भगवान समक्ष हैं । मेरा अभिमान चूर-चूर हो गया, नाथ ।'
'तुम्हारे मन में अब भी शंका है, कि पुरुष को लेकर श्रुति-वाक्यों में विरोध है !'
'विरोध स्पष्ट है, प्रभु । अन्तर्यामी से क्या छुपा है ? · · · तो क्या मान लूं कि वेद मिथ्या है ?' ___ 'वेद सम्यक है, तुम्हारा ज्ञान सम्यक नहीं । क्योंकि तुम्हारा दर्शन सम्यक् नहीं। तुम्हारी दृष्टि अनेकान्त नहीं । वेद अनेकान्त है । वेद आलोकित है, गौतम।'
'प्रतिबुद्ध करें, भगवन् ।'
'स वै अयमात्मा ज्ञानमयः । एक ओर तुम्हारे मन में यह उपनिषत् वाक्य है, जो ज्ञानमय चैतन्य-पुरुष का उद्घोषक है । दूसरी ओर यह वेद वाक्य है : विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति न प्रेत्य संज्ञास्ति । इसमें तुम यह सुनते हो कि भूत समुदाय से चेतन पदार्थ उत्पन्न होता है, और उसी में लीन हो जाता है । कोई अमर आत्मा नहीं । कोई जन्मान्तर नहीं । भूत समुदाय के अतिरिक्त किसी पुरुष का अस्तित्व नहीं । तुम्हारे एक ओर भूतवादी वेद है, दूसरी ओर आत्मवादी उपनिषद् है । वेद और वेदान्त के बीच तुम्हें विरोध भास रहा है । और तुम्हारी उलझन का अन्त नहीं । तुम्हारी वेदना की सीमा नहीं। तुम अपने प्रति पल के श्वास को टोक रहे हो, गौतम ? पूछ रहे हो कि, यदि मैं कोई अक्षुण्ण सत्ता नहीं, तो क्यों जिया जाये, क्यों साँस ली जाये ? तुम लोक के सबसे सचेतन और बेचैन व्यक्ति हो, गौतम । तुम्हारी पीड़ा को समझ रहा हूँ।'
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