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• और औचक ही असंख्य द्रष्टियों को अपनी आँखों में समा कर, योगी ऋषभ देख उठे : जाने कब वे अर्हत् गन्धकुटी की सीढ़ियाँ चढ़ कर उस लोहिताक्ष कमलासन के एक ओर नग्न ज्योति की तरह दण्डायमान दिखायी पड़े ।
तब निखिल चराचर के प्रणम्य उन त्रिलोकीनाथ प्रभु ने ईषत् नम्रीभूत हो
कर :
विश्व-तत्त्व को प्रणाम किया ।
फिर अपने कैवल्य में झलक रहे त्रिलोक और त्रिकाल के समस्त परिणमनों को प्रणाम किया ।
फिर अपने युग-तीर्थ का वन्दन किया ।
और तब वे झुक आयी प्राग्भार पृथ्वी की तरह गन्धकुटी के रक्ताभ कमलासन पर आरूढ़ हो गये । यद्यपि ये भगवान अब सारे ही रूपी, पर्यायी ऐश्वर्यों से ऊपर उठ गये हैं । फिर भी त्रिलोक की समग्र सौन्दर्य - लक्ष्मी को अपनी कल्पा और नियोगिनी जान, उन्होंने सहज ही उसको अंगीकार किया । उसका वरण कर लिया ।
लेकिन पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से अब वे अर्हत् परे जा चुके हैं। योगीश्वर का यह चरम सुन्दर शरीर निर्भर हो गया है । कैवल्य-क्षण से ही उनका आसन उत्थान हो चुका है । उनके श्वास, प्राण और समग्र नाड़ी मंडल, उनके भ्रूमध्य-चक्र संकेन्द्रित हैं । उनकी तमाम इन्द्रियाँ उसी एकाग्र बिन्दु से संचारित होती और काम करती हैं !
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सो कमलासन पर पद्मासन में बैठे दिखायी पड़ रहे वे भगवान उससे अस्पर्शित हैं । उसकी रक्तिम - केशरिया कान्ति से वे उत्तीर्ण हैं । उनकी वह निरंजन गौरांग मूर्ति अधर अन्तरिक्ष में आसीन है । उनके सर्व चराचर - मोहन मुख - मंडल के चारों ओर एक विशाल भामण्डल अनायास प्रोद्भासित है । उसमें अनन्त कोटि सूर्यचन्द्र, ग्रह-तारा-मण्डल, खमण्डल, भूमण्डल अविरल चक्रायमान हैं। उसमें विश्व - तत्त्व अमन्द आभा के साथ निरन्तर परिणमनशील है । उसमें से सर्वकामपूरन पदार्थ
भाएँ प्रवाहित हो कर जन-जन, कण-कण की अन्तरतम् कामना को इस क्षण पूरी कर रही हैं। उसके सर्व लोक- काल व्यापी विराट् किरण-बिम्बों से समस्त अन्तरिक्ष आच्छादित है ।
वे सर्वेश्वर प्रभु पूर्वाभिमुख बिराजमान हैं । - पर दसों दिशाओं की ओर वे उन्मुख जान पड़ते हैं। हर दिशा के प्राणियों को लगता है, कि वे उन्हीं की ओर देख रहे हैं | वे अपने में ध्रुव, निश्चल हैं । पर हर किसी को लगता है कि वे
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