SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समूचे उसी की ओर प्रवाहित हैं। सृष्टि का प्रत्येक अणु-परमाणु रोमांचित हो कर अनुभव करता है, कि वे ज्योति-पुरुष उसके आरपार यात्रा कर रहे हैं । सारे अन्धकार और अतल-वितल जाने किस स्पर्श से भास्वर हो गये हैं। समवसरण की 'शिवपुरी' नामा मौलिक भूमि के परिमण्डल में चारों निकाय के जीवात्मा बारह सभाओं में उपस्थित हैं। ये सभाएं जैसे आकाशी पीठों से विभाजित हैं। जिनके भीतर वे सारे प्राणी अनायास एक-दूसरे में अपने को प्रतिविम्बित देख लेते हैं। एक-दूसरे में पूर्ण अवकाश पा जाते हैं। परस्पर के लिये आत्मोपम भाव से भर उठते हैं। · · · वे अनजाने ही सर्वात्म-भाव से आप्लावित हैं। एक ही अखण्ड सम्वेदन के भीतर वे अपने निजत्व को अभिव्यक्त पा रहे हैं । इसी से उनके अहम्-स्वार्थ, राग-द्वेष आपो आप शान्त हो गये हैं । वृक्षों की तरह फलद्रूप हो कर, वे एक गहरी सभरता से नमीभूत हो गये हैं। यह आत्म-शास्ता की धर्म-सभा है । इसी से सब यहां स्वतः अनुशासित हैं । संयम, मर्यादा और अनुशासन का यह स्वयम्भू राज्य है । हीन-महत्, गुरु-लघु, छोटाबड़ा, ऊँच-नीच, धनी-निर्धन के भेद यहाँ समाप्त हैं। रात और दिन का अन्तर यहाँ विलुप्त हो गया है । अहर्निश यहाँ सर्वत्र प्रकाश ही व्याप्त रहता है । उदय और अस्त, उत्थान और अवसान यहाँ एकाकार हो गये हैं। _ 'शिवपूरी' केप्राकार-मण्डल में निर्मित बारह सभाओं में एक अनोखी संकलना चल रही है । पहलो सभा में मुनि-यति, आचार्य-उपाध्याय बिराजमान हैं। ‘णमो लोये सव्व माहूणम्' का बोध यहाँ प्रत्यक्ष है। वे तपोज्ज्वल श्रमण, भगवान के स्वरूप के अंश जैसे भासित होते हैं। दूसरी सभा में पीत कमल जैसी रूपाभा वाली कल्पवासी देवों की देवियाँ बैठी हैं। वे भगवान की बाह्य विभूतियों के साक्षात् प्रकटीकरण जैसी लगती हैं। तीसरी सभा में जैसे लज्जा, क्षमा, धृति, शांति, तितिक्षा, मुमुक्षा की मूर्तियों बैठी हैं। ये साध्वी आयिकाएं हैं। ये धर्म की संवाहक पंक्तियों जैसी प्रतीत होती हैं। चौथी सभा में तीक्ष्ण प्रभा से देदीप्यमान ज्योतिष् देवों की अंगनाएँ शोभित हैं। उनकी नाना भंगिम देहों से, भीतर छुपे मोह की काजल झड़ रही है । और वह अर्हत् की सूर्याभा में निर्वापित हो रही है। पांचवीं सभा में वन-वासिनी व्यन्तर देवियाँ फूलों के उत्तरीय ओढ़े, वनमाला धारण किये, नम्रीभूत बैठी हैं। मानो कि लोक की तमाम सुरम्य प्रकृति वहाँ श्री भगवान के चरणों में समर्पित है । छठवीं सभा में भवन वासी देवियों प्रभु की दिव्यध्वनि को झेलने के लिये आंचल पसारे बैठी हैं । वे आत्मोत्सर्ग की दीप-शिखाओं-सी लगती हैं। वे हजारों जोत वाली आरती की तरह भगवान की ओर उठी हुई हैं । सातवीं सभा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy