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सहसा ही मानांगना भूमि का मानस्तम्भ नम्रीभूत हो गया । एक हिमाचल के समान उत्तुंग ज्योति-पुरुष ने उसे बाँहों में भर कर, अपने मस्तक से भी ऊँचा कर
दिया।...
'भगवान आ गये, भगवान आ गये, भगवान आ गये . . .' की विह्वल-पामल आनन्द-ध्वनियों में प्राणि मात्र के शरीर जैसे गल-गल कर बहने लगे। हर (शै ने) हाथ पसार कर उस त्रिभुवन-मोहन मुखड़े के सौन्दर्य को अपनी छाती में समा लेना चाहा । . . .
आ गये हमारे जगन्नाथ : ममनाथ जगन्नाथ । आ गये हमारे सर्वस्व, हमारे हृदयनाथ, हमारे आत्मनाथ । आ गये हमारे अंग-अंग के दुलार, हमारी पीड़ाओं की पुचकार, हमारे अणु-अणु की चीत्कार, हमारे अन्तरतम की पुकार, हमारे जनम-जनम के वियोगों के प्यार आ गये
आ गये आ गये आ गये . . सृष्टि के सारे तन-मन पुलकित-कम्पित हो आये। सब के प्राणों में ऐसी ही ममता के पारावार छलक रहे हैं । ऐसी ही ध्वनियाँ, गुहारें, निवेदन पोर-पोर, कोर-कोर में से फूट रही हैं।
· · पूर्व द्वार में से अकस्मात् भगवान ने ममवमरण में प्रवेश किया। मिलन के आनन्द-वेदन की सिसकारियाँ मर्वत्र फूट पड़ीं । अन्तरतम की कातर आत्मीय ध्वनियाँ मानो प्रभु के उम ज्योतिर्मय निश्चल शरीर को भी रोमांचित करने लगीं।
प्रभु ने प्रथम सम्मुख आये प्रतिच्छन्दक चैत्य-वृक्ष की तीन प्रदक्षिणाएं की। फिर वे उल्लम्ब बाह भगवान अर्हत् मानो सर्व को दूर से ही आलिंगन देते समवसरण की वीथियों में विहार करने लगे। उनके हर चरणपात को झेलने के लिये कदम-कदम पर सोने के विशाल कमल तर आते हैं । प्रभु अविकल्प पग, तृतीय नेत्र से सबको एकाग्र चितवन-सुख देते हुए, इस सारी रचना में से गुजरने लगे। 'संसार-सारम्' वे जिनेश्वर इस संसार के अणु-अणु को स्वतंत्र और सार्थक करने आये हैं।
पर यह क्या, कि धरिणी उन्हें धारण करने में असमर्थ हो गयी है । वह सँकुचा जाती है, उनके अनंग चरणाघात से । और लो, वे प्रभु तो अधर में, अस्पृष्ट चल रहे हैं। धरती पर चलते दीख रहे हैं । पर वे आकाश के भी ऊपर चल रहे हैं । वे अपने ही भीतर चल रहे हैं। फिर भी वे समवसरण की तमाम परिक्रमाओं में चल
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