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________________ योगी ऋषभ एक क्षण भी और वहाँ ठहर न सके। उनकी उत्कट और अनिरि वेदना के उत्तर में चारण-ऋद्धि वहाँ प्रस्तुत हो गयी। तत्काल उस पर आरूढ़ हो कर, खड़े-खड़े ही आकाश-गमन करते हुए योगी ऋषभ विपुलाचल के समवसरण में सदेह ममूचे आ उतरे । किसी अलक्ष्य दूर कोने में अन्तरित खड़े हो रहे । वहीं से वे गन्धकुटी के मूर्धन्य कमलासन की सूनिमा में आँखें गड़ा स्तब्ध हो रहे। 'नहीं, वह अभाव का रिक्त नहीं है। वह महाभाव की पूरम्पूर सभरता है । किसी परात्पर आविर्भाव की ऊर्जस्वल तरंगें उस रक्त कमल में उठ रही हैं। या अग्नि का वह आलय है । परम सविता का वह उदयाचल है । अनन्त कोटि सूर्य और चन्द्रमा उसकी कोरों में उदय होने को कसमसा रहे हैं । '' ___ हठात् योगी ऋषभ को सुनायी पड़ा । संत्रस्त संसार का वह आर्तनाद स्वयम् ही किसी अनहद नाद में परिणत हो रहा है। · · · सहसा ही देव-दुन्दुभियों, शंखों, घण्टाओं, विपुल बाजिन्त्रों के घोष से समस्त समवसरण-भूमि थर्रा उठी। स्तुतियों और वन्दनाओं की असंख्य गान-ध्वनियाँ उठने लगीं। मानस्तम्भों, कूटों, स्तूपों, गोपुरों, गवाक्षों, अलिन्दों, के हर कँगरे और किनारे पर अप्सराओं और देवियों की हारमालाएँ नृत्यों में ठुमक उठीं। स्वर, ताल और झंकारों के दरिये धसमसा कर बहने लगे । मस्ती से उछलने लगे । गन्ध कुटी के अशोक-वृक्ष से लगा कर, मानांगना भूमि के मानस्तम्भों तक से असंख्य एकाकार जय-ध्वनियाँ उठने लगीं । अविराम जयकारों से दिग्गज डोलने लगे, अन्तिम ममुद्रों के पानी उछलने लगे : चरम तीर्थकर भगवान महावीर जयवन्त हो । कलिकाल के महाकालेश्वर शंकर जयवन्त हों। अनन्त-कोटि ब्रह्माण्डों के राजराजेश्वर जयवन्त हों । काल-कालान्तर के विधाता जयवन्त हों। लोक-लोकान्तर के द्रष्टा और स्रष्टा जयवन्त हो । कैवल्य-कमलापति महाविष्ण जयवन्त हों। अवसर्पिणी के चरम तीर्थंकर जयवन्त हों। त्रैलोक्येश्वर, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान महावीर जयवन्त हों। और अचानक ही समस्त समवसरण की भूमि पर एक विराट आलोक की छाया पड़ी । गन्धकुटी का कमलासन रक्त-ज्वालाओं से स्पन्दित हो उठा । असंख्य देवों, मुनियों, दानवों. मानवों, पशुओं की आँखों ने एक साथ देखा : समवसरण की वीथियों और परिक्रमाओं में सवर्णिम पदम-पाँवड़ों के आभास चमकारने लगे। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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