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चरम विरोधी की प्रतीक्षा
संत्रस्त संसार का गहन आर्तनाद शून्य के मण्डलों में घहरा रहा है । कहीं एकाकी बैठी पृथ्वी अन्तहीन आलाप में अपनी शोकान्तिका गा रही है । सर्व देश और काल के प्राणियों की दुःख - कातर पुकारों का समवेत नाद, दूरियों में डूब कर, फिर-फिर उठ रहा है ।
विन्ध्याचल के दुर्गम्य कूट पर ध्यानस्थ ऋषभ की समाधि हठात् टूट गयी । वे भी सारे संसार की पीड़ा के साथ सम्वेदित हो आये । बेचैन हो कर वे पुकार उठे : हे भगवान, हे समवसरण - नाथ, तुम कहाँ हो ? तुम्हारे स्वागत में बिछा, तुम्हारे धारण को तत्पर वह समवसरण इन्द्रजाल की तरह कहाँ लुप्त हो गया ? तुम्हारी अनुपस्थिति में त्रिलोक का सारभूत ऐश्वर्य भी शून्य हो कर रह गया है । वह ठुकराया, परित्यक्त हो पड़ा है ।
अभी-अभी मैंने तुम्हें विपुलाचल से उस निर्जन निरालय में देखा था । गहन के नीलम में से अवतीर्ण वह अभिताभ मुख मण्डल |
और फिर मैं तुम्हारे समवसरण की देवोपनीत माया में खो गया । ऐसा खोया कि हे सुमेरु-पुरुष, तुम्हीं मेरे हाथ से निकल गये । पर क्या यह समवमरण तुम्हारा ही वैश्विक शरीर नहीं है ? इसी महा शरीर के माध्यम से तो हम तुम्हें देख सकते हैं, सुन सकते हैं, छू सकते हैं । नहीं तो तुम्हारी उस प्रभाविल देह से अपने दूखते अंगों को सहलाने का और कोई उपाय नहीं है । हमारी ये इन्द्रियाँ, हमारे ये मांसल हाथ-पैर कैसे तुम्हें समूचा ग्रहण कर सकते
हैं ?
'नहीं, अब तुम्हारे उस ब्रह्माण्डीय शरीर के संस्पर्श से मैं दूर नहीं रह सकता । तुम्हारे स्पर्श की उस ऊष्मा से वंचित रह कर, हे नारायण, मैं शुक्लध्यान और क्षपक श्रेणी पर भी आरूढ़ होना नहीं चाहता ।
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