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आश्लेषित और समावेशित हैं । वस्तु के स्वाभाविक (पॉजिटिव) और वैभाषिक (निगेटिव), दोनों ही परिणमन उन्हें यथा स्थान स्वीकार्य हैं, क्योंकि वे यथासन्दर्भ अनिवार्य हैं। इसी कारण इस पूर्ण योगीश्वर ने मोग को भी नकारा नहीं है। वैयक्तिक चेतना के विकास की क्रमबद्ध भूमिकाओं या पर्यायों में, उन्होंने हर कामिक स्फुरणा का मी ऊर्वीकरण की एक अनिवार्य प्रक्रिया के रूप में सम्यक् उपयोग कर लिया है। महावीर ब्रह्म-परिनिर्वाण पर समाप्त नहीं। उनकी सर्वज्ञ और सर्वकालवर्ती ज्ञान-चेतना ने, असंख्य वैयक्तिक आत्माओं की अनाद्यन्त विद्यमानता को स्वीकृति दी है। हर आत्मा यहाँ अन्ततः ब्रह्म में खो जाने को नहीं है, वह अनन्तकाल में उत्तरोत्तर अनन्त पूर्णत्व में उत्तीर्ण होते जाने के लिये है। यही हर आत्मा की नियति है। उसकी इयत्ता और अस्मिता, आदि से अन्त तक शाश्वती (इटनिटी) में वैयक्तिक रूप से मौजूद रहने वाली है। श्री अरविन्द ने भी इसी को स्वीकारा है। ईसाइयत और इस्लाम में भी हर आत्मा की 'आइडेंटिटी' (व्यक्तिमत्ता) सर्वकाल रहने वाली मानी गई है।
इसी सर्व-समावेशी और अनन्त परिप्रेक्ष्य में, भोग और योग की संयुक्त स्थिति का साक्षात्कार होता है। जब सत्ता स्वयम् ही हर पल 'इन्टीग्रल' है, नाना-आयामी है, अनेकान्तिक है, तो भोग और योग के बीच कोई अन्तिम विभाजक-रेखा कैसे खींची जा सकती है। सत्ता के इस 'कॉस्मोग्राफ़' में कब एक ही आत्मा क्षणाश मात्र में ही, भोग से योग में और योग से भोग में अतिक्रमित हो जायेगी, इसका निर्णय केवल पूर्णज्ञानी, सर्वज्ञ योगीश्वर ही कर सकता है। कोई नीति-शास्त्र, आचार-शास्त्र और तथाकथित पीठाधीश धर्म-गुरु इसका निर्णय नहीं कर सकता।
इस कृति में आप उपयुक्त सूक्ष्म, निगढ़ और अगम्य चेतना-परिणमनों की बड़ी नाटकीय और विरोधाभासी स्थितियों का सृजनात्मक लीला-खेल जगह-जगह पायेंगे। सत्ता और आत्म-चेतना के इस निरन्तर अनंकान्तिक परिणमन के कारण, और महावर द्वारा उसके तद्प एकाग्र दर्शन-ज्ञान के कारण, जगह-जगह पाटक को पारस्परिक विरोध या 'कॉन्ट्रेडिक्शन-इनटर्मस्' की भ्रांति हो सकती है। लेकिन जब सत्ता स्वयम् ही एकबारगी ही, नाना रूपों में परिणमन करती दिखाई पड़ती है, तो शब्द में उसका कथन स्वभावत. पिरोधाभासी (पेराडावर्सीकल) लग सकता है। क्यों कि यह शब्द की सीमा है, कि वह एक बार में एक-देश कथन ही कर सकता है। इसी से प्रायः परम ज्ञानियों की भाषा सन्ध्या-भाषा रही है : प्रतीकों और संकेतों में ही वे बोलते सुनाई पड़ते हैं। एक ही कथन में अनेक गढ़ भाव और आशय
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