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वह अमर और अखण्ड सौन्दर्य है । वह त्याग और भोग से, विधि और निषेध से ऊपर है। मैं भगवान और भगवती का महामाव कवि हूँ, उनका शुष्क शाब्दिक व्याख्याकार और निरूपणकार नहीं। कवि की इस मुक्त चेतना, संवेदना, अवगाहना और भाषा को, हृदय के भाव में ग्रहण करना होगा, तर्क-निर्णीत परिभाषा से नहीं। क्योंकि महावीर का समग्र आकलन उस तरह सम्मव नहीं।
ऐसे और भी कई प्रकरण हैं, जहां कट्टर शब्दबद्ध पूर्वग्रहीत जैन की जड़ीभूत धारणा को गहरा धक्का लगेगा। उसे ऐसा लगेगा, कि भगवान की वीतरागता में दूषण लगा है, वह क्षुण्ण हुई है, उसकी 'आसातना' (अवमानना) हुई है । क्यों कि जैनों की वीतरागता की धारणा, महावीर की मात्र पाषाणमूर्ति हो कर रह गयी है। वह केवल प्रतिमाबद्ध पत्थर का भगवान है, जीवन्त मनुष्य वह है ही नहीं। माव-सम्वेदन, सौन्दर्य, अनुभूति-सब से परे वह निरा निश्चल, ठण्डा, निर्जीव पत्थर है। स्पन्दन, सम्वेदन, अनु कम्पन से वह परे है। तो ऐसा वीतराग महावीर हमें कैसे संवेद्य हो सकता है ? कम से कम ठीक आज का मनुष्य तो ऐसे किसी महावीर की तलाश में नहीं, उससे आकृष्ट नहीं हो सकता। वीतराग वह, जो पूर्णराग हो । निष्काम वह, जो पूर्णकाम हो । उसके पूर्णराग और पूर्णकाम में, खण्ड राग या काम का इनकार नहीं, समावेश और स्वीकार ही हो सकता है। जो भगवान हमें ठीक इस क्षण यथास्थान नहीं स्वीकारता, उसे स्वीकारने या पाने की मुद्रा में हम आज नहीं हैं। जिसकी चेतना सकल चराचर और कणकण के साथ ज्ञानात्मक रूप से सम्बंदित थी, उसकी वीतरागता पत्थर कैसे हो सकती थी, वह तो सर्व के प्रति निरपेक्ष और निष्काम भाव से प्रवाहित पूर्ण प्रेम में ही प्रतिफलित हो सकती थी। यदि मेरे शब्द से ऐसी कोई निष्प्राण वीतरागता क्षुण्ण हुई है, तो ठीक ही हुआ है, क्यों कि ऐसी किसी निस्पन्द वीतरागता में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है। जैनों के अनुसार ही अर्हन्त और सिद्ध में अनन्त गुण और सम्भावनाएँ एकाग्र प्रकट हो उठती हैं। तो उसमें निषेध
और अस्वीकार को अवकाश ही कहाँ है ? सिद्धात्मा सर्व-समावेशी ही हो सकते हैं : क्यों कि त्रिलोक और त्रिकाल सतत उनके ज्ञान के परम भोग्य विषय बने हुए हैं। और सतत परिणमन के निरन्तर ज्ञानी, क्रियावादी महावीर की वीतरागता जड़, कूटस्थ, निस्पन्द कैसे हो सकती है ? सत्ता का लक्षण ही है निरन्तर परिणमन, प्रकम्पन, अनुकम्पन, निरन्तर सम्वेदन और अनाद्यन्त विकास की धारा, अनन्त ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्य की अनाहत प्रवहमानता ।
महावीर मेरे मन एक सर्वतोमुखी (इन्टीग्रल) पूर्ण पुरुष हैं। वे अनेकान्त सत्ता-पुरुष है। सारे देश-काल, उनकी सारी लीलाएँ, उनके ज्ञान में अनायास
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