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________________ ४१ धारणाओं और अभिनिवेशों को तोड़े बिना कैसे सम्भव है ? और यह सब मैं जैनों के युवतं सत्वम्' के आधार पर ही कह रहा हूँ। अनन्त धारा - पुरुष का साक्षात्कार मूल सत्ता-दर्शन- 'उत्पाद-व्यय-धौम्य तो प्रश्न उठ ही नहीं सकता । उपर्युक्त पृष्ठभूमि पर ही, प्रस्तुत खण्ड के दो और प्रकरणों का खुलासा जरूरी है। क्योंकि स्थूल दृष्टि के कट्टर साम्प्रदायिक पाठकों को उसमें भारी ग़लतफहमी हो सकती है। एक वह प्रकरण, जिसमें महासती चन्दनबाला, प्रथम बार तीर्थंकर महावीर के समवसरण में आती हैं। प्रथम खण्ड की भूमिका में ही मैं स्पष्ट कर चुका हूँ, कि मेरे कवि के महाभाव विजन में चन्दना भगवान के संग अटूट युगलित भगवती के रूप में खड़ी दिखाई पड़ती हैं । प्रसंगान्तर में मैंने इस सन्दर्भ में शिव और शक्ति के प्रतीकों का भी उपयोग किया है। सच पूछा जाये तो इस कृति में मैंने आज तक के सारे भारतीय साधना -मार्गों के प्रतीकों का विनियोजन मुक्त भाव से किया है। यह भाव की सर्वसमावेशी भाषा है, बुद्धि की विश्लेषक और विभेदकारी भाषा नहीं । अनाद्यन्तकालीन समग्र वैश्विक प्रज्ञा की महाधारा ही अनुत्तर योगी महावीर में मूर्ति मान हुई है । चन्दनबाला के आगमन के प्रकरण में, वैदिक ब्राह्मण परम्परा से संस्कारित पट्टगणधर गौतम स्वयम् भगवती की प्रतीक्षा से भावित हो कर भगवती का आवाहन करते हैं । भगवान उनकी भाव-चेतना और भाषा को स्वीकार लेते हैं। वे गौतम की जिज्ञासा के उत्तर में ब्राह्मण और श्रमण चेतना के मूलगत एकत्व को उद्घोषित करते हैं। वे कहते हैं कि : 'ब्राह्मण वाङमय आत्मा और सत्ता , कविता है, तो श्रमण वाङ्मय आत्मा और सत्ता का विज्ञान है। दोनों युगपत्, परस्पर पूरक और अनिवार्य हैं ।' Jain Educationa International दीर्घ मौन के बाद भगवान चन्दनबाला को सम्बोधन करते हैं : 'दिगम्बरी हो कर सामने आओ, माँ । सकल चराचर तुम्हारे स्तन पान को तरस रहा है !' साम्प्रदायिक जैन के लिये यह उक्ति अनर्थकारी है, क्योंकि भाव की भाषा से वह परिचित नहीं। वह केवल विधि-निषेध को रूढ़ भाषा का अभ्यस्त है । लेकिन यहाँ महाभाव चेतना को भूमि पर भगवान ने नारी को, आद्या शक्ति जगन्माता, सकल चराचर की माँ के रूप में स्वीकृति दी है। सृष्टि में नारीमाँ का जो धात्री स्वरूप उजागर है, उसी को प्रभु ने चन्दनबाला के रूप में सकल चराचर को साक्षात् करा कर, अनाथ मानवता को परम आश्वासन दिया है । आगे इसी प्रकरण में भगवान चन्दना के केश लुंचन का निषेध कर देते हैं । त्रिभुवन सुन्दरी मां का रूप, माघ-चेतना में क्षम्य और विनाशीक नहीं । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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