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________________ गमित रहते हैं। बेशक सर्वज्ञ अविरोध-वाक् होता है। उसकी तत्त्व-प्ररूपणा में पूर्वापर विरोध नहीं होता। नहीं हो सकता। लेकिन विभिन्न सन्दर्भो में उसका कथन सापेक्ष ही होता है। महावीर कहीं कहते हैं कि : 'मैं तोड़ने नहीं, जोड़ने आया हूँ।' तो अन्यत्र यह भी कहते सुनाई पड़ते हैं कि : 'हम जोड़ने नहीं, तोड़ने आये हैं। कबीर की उलट-बांसियों भी इसके अच्छे उदाहरण हैं। उपनिषद् और अद्वैत वेदान्त की सारी भाषा एक साथ इतनी बहुमुखी है, कि उसे अर्थ से नहीं, भाव से ही हृदयंगम किया जा सकता है। वह साक्षात्कृत और सर्वसमावेशी परम तत्त्व की नाना भाविनी और शाश्वत कषिता है। पूर्णज्ञानी सर्वज्ञ की वाणी, कविता की सर्वतोमावी भाषा में ही व्यवत हो सकती है। इसी से सारे शास्ताओं और ज्योतिर्घरों की मूल वाणियाँ कविता में उच्चरित हैं, दार्शनिक तत्त्वज्ञान में नहीं। महावीर की दिव्य-ध्वनि मी एक सर्व-सम्वेद्य काव्य-वाणी ही है, जिसे पशु-पक्षी तक समझ लेते हैं। दर्शन और सिद्धान्त तो बाद को अनुयायियों ने बनाये हैं। उनसे महावीर का सम्यक् आकलन सम्भव नहीं। इसी लिये 'अनुत्तर योगी' को काव्य में ही सृजित होना पड़ा। और इसी कारण उपन्यास की विधागत सीमा और ढाँचे को भी उसने तोड़ दिया। इसी लिये इस कृति को स्वयम् अपने आप में एक स्वतंत्र विधा हो जाना पड़ा। मौलिक और असली महावीर की खोज और रचना इस मुक्त महा-काव्यात्मक स्तर के अतिरिक्त सम्भव नहीं हो सकती थी। - प्रस्तुत तृतीय खण्ड के अन्तिम दो अध्याय हैं : 'इतिहास का अग्नि-स्नान' और 'क्या कल्की अवतार होने को है ?'। इनमें आनन्द गृहपति (श्रावक) के कथानक को, वर्तमान युग-चेतना के सन्दर्भ में मैंने एक नया मोड़ दिया है। आगमों में एक ग्रन्थ है : 'उवासग दसाओं--अर्थात् भगवान महावीर के 'दस उपासक'। ये दसों उपासक अपार सम्पत्ति के स्वामी श्रीमन्त थे, और महावीर के प्रमुख दस श्रेष्ठी उपासक श्रावकों के रूप में सुप्रतिष्ठित हैं। वस्तुत: ये आदर्श श्रावक-श्रेष्ठ माने गये हैं। ये मूलतः उच्चात्मा थे, और भगवान के पास अपने त्याग, व्रत और परिग्रह-परिमाण की एक लम्बी तालिका लेकर आते हैं। मूल कथाओं के अनुसार भगवान इन्हें श्रावक के बारह व्रतों में दीक्षित करते हैं, इनके परिग्रह-त्याय को स्वीकारते हैं, फिर ये ग्राहस्थ्य में रह कर ही सामायिक-ध्यान की गहरी साधना करते हैं, जिसमें अनेक आसुरी शक्तियां इन पर आक्रमण कर के इनकी निष्ठा को तोड़ना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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