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देख कर मेरी आत्मा बलवा कर उठती थी । आठ वर्ष की वय में ही मेरे जी में मृत्यु का प्रश्न अग्नि-शलाका की तरह उठा था, और मेरा पढ़ा-जाना जैन धर्म या उसके पण्डित या साधु भी कमी फिर मेरा समाधान न कर सके थे। संसार को असारता और अस्तित्वगत त्रासदी की अनिवार्यता का जो अतिरेकपूर्ण निरूपण जैन ग्रंथों में मिलता है, उसे ज्यों का त्यों स्वीकार लेना मेरे लिये कमी सम्भव न हो सका।
वय-विकास, शिक्षा और सृजनात्मक प्रवृत्ति के बढ़ते चरणों के साथ मेरी चेतना अधिक स्वतंत्र होती गयी है। किसी भी स्थापित तीर्थकर, पंग़म्बर, धर्मप्रवर्तक और उसके नाम पर प्रचारित धर्म-सिद्धान्त का अभिनिवेश मेरी चेतना पर अन्तिम रूप से कभी हावी न हो सका। वेद-वेदान्त, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, ईसा, मोहम्मद, नानक, शाक्त, शैव, वैष्णव तथा इस युग के रामकृष्ण, रमण, श्रीअरविन्द, मावर्स, फॉयड और सारे ही पश्चिमी दर्शन और विज्ञान-सब में से मैं गुजरा हूँ। पर मैंने कहीं अन्तिम पड़ाव नहीं डाला । मैं कहीं रुक न सका। मैं अनुयायी न हो सका । मेरी आत्म और जीवन-जगत की खोज नितान्त मेरी स्वतंत्र पृच्छा, पुकार और पीड़ा के अनुसरण में ही चलती रही है। ___और आज तो मैं इतना स्वतंत्रचेता हो गया हूँ, कि जिन 'श्रीगुरु' की कृपा से मुझे द्वंद्वातीत परम प्रज्ञा और परमानन्द का किंचित् अनुभव-आस्वाद मिला, उनका भी हर शब्द मेरे लिये अब आज्ञा नहीं रह गया है। उनके प्रति भी कोई बाहरी या शाब्दिक प्रतिबद्धता मुझ में सम्भव न हो सकी है। बल्कि यह एक सुखद आश्चर्य और लगभग चमत्कार है, कि मैंने अपने 'श्रीगुरु' के निगूढ आन्तरिक आदेश से ही, उनके भी सारे बाह्य आदेशों और विधि-निषेधों की मर्यादा तोड़ दी है। और पग-पग पर प्रति क्षण प्रतीति हो रही है, कि इस अतिक्रमण से मैं 'श्रीगुरु' के निकट से निकटतर पहुंच रहा हूँ। कई बार तो हठात् मैं अपने को उनके साथ तदाकार अनुभव करता हूँ : अचानक लग उठता है कि वे स्वयम् मुझ में चल रहे हैं। प्रसंगात अचानक उन्हीं की एक खास बोली के अन्दाज़ में बोलने लगता हूँ। श्रोता स्तब्ध, विमोर दीखते हैं। परम उपस्थिति का वातावरण में बोध होता है। गहरे में द्वंद्व और प्रश्न समाप्त प्राय दीखते हैं। • मैं किसी का अनुयायी नहीं, स्वयम् -ही अपना सूर्य हूँ। और मुझ में यह स्पष्ट प्रतीति है, कि इस आत्म-स्थिति को जो किंचित् उपलब्ध हो सका है, यह मेरे 'श्रीगुरु' के अनुग्रह का ही प्रत्यक्ष प्रसाद है। अत्यन्त कठोर शासक उन 'श्रीगुरु' ने हो, मुझे स्वयम् सारे धर्मादेशों, विधि-निषेधों से ऊपर उठा दिया है। और इस सृजन के दौरान महावीर ने भी तो मेरे साथ यही किया है।
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