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________________ २३ प्रस्तुत तृतीय खण्ड में महावीर स्वयम् एक स्थल पर कहते सुतायी पड़ते हैं : 'महानुभाव अम्बड़ परिव्राजक, जो स्वयम् अर्हत् के भी आदेश का अतिक्रमण कर जाये, वही अर्हत् को उपलब्ध हो सकता है।' ___ ऐसे में भी किसी एक ज्योतिर्धर या तीर्थकर और उसके उपदेशों के साथ मुझे तदाकार देखना (आयडेन्टीफाइ करना), एक हिमालयन ब्लण्डर होगा। मैं अपनी अत्यन्त निजी प्रकार की आत्मवेदना और आत्मानुभूति के अतिरिक्त अन्य किसी बाहरी धर्म, दर्शन, कल्ट या क्रीडो से प्रतिबद्ध नहीं । जो भी किंचित् प्रज्ञात्मक अभिव्यक्ति आज मेरी क़लम से हो रही है, वह नितान्त अपने संघर्षों, यातनाओं, विशिष्ट प्रकार की अपनी सम्वेदनात्मक पुकारों और एक लम्बे और करारे जीवनानुभव से अर्जित मेरा अपना स्वतन्त्र जीवन-दर्शन है। लेकिन अपनी खोज-यात्रा में सभी ज्योतिर्घरों, ज्ञानियों-विज्ञानियों के प्रज्ञालोक से गुजर हूँ। साधु-संगति भी शुरू से ही मेरा परम प्रिय व्यसन रहा है। और इस यात्रा में मिलने वाले हर साधु-सन्त का गहरा प्यार और अनुगृह मी मुझे प्राप्त होता रहा है । मानव-जाति की आज तक की तमाम ज्ञानात्मक, सृजनात्मक, सांस्कृतिक विरासत के स्रोतों पर मैंने आबे-हयात पिया है, और वह सारी संचित ज्ञानराशि मेरी चेतना में अनुस्यूत और समाहित है। मैं उस महाधारा से अलग नहीं, उसी का एक और अगला प्रवाह हूँ। उस अनन्त-सम्भावी महासत्ता की एक और भी सम्भावना हूँ। और अनाद्यन्तकालीन मनुष्य की इस उत्तरोत्तर विकासमान जययात्रा का मैं ऋणी हूँ, उसके प्रति मेरी कृतज्ञता का अन्त नहीं । और उस शाश्वत चैतन्य के प्रति यदि मेरी कोई प्रतिबद्धता हो सकती है, तो यही कि उसकी किसी भी एक अभिव्यक्ति पर न रुकूँ, उसकी हर अभिव्यक्ति का निरन्तर अतिक्रमण करता हमा, विकास और सम्भावना के नव्यतर शिखरों पर आरोहण करता जाऊँ। जीवन स्वयम् यही सिखाता है। जीवन-देवता का यही एकमात्र प्रत्यक्ष आव्हान और विधान है। ___इसी से यह सदा के लिये स्पष्ट हो जाना चाहिये, कि मैं किसी भी पूर्वगामी ज्योतिर्धर और उसके द्वारा उपदिष्ट मार्ग का अनुयायी नहीं । उसकी शाश्वती और अनन्त चेतनाधारा का अगला संवाहक ही हो सकता हूँ। मेरे अनुत्तर योगी महावीर स्वयम् कहते हैं कि : 'हर अगला तीर्थकर, अपने पूर्वगामी तीर्थंकर से नव्यतर और आगे का होता है। आत्मा में अनन्त गुणपर्यायों का परिणमन निरन्तर चल रहा है। सत्ता स्वयम् अनन्त-परिणामी है। उसमें पुनरावृत्ति सम्भव नहीं । कोई भी सच्चा तीर्थंकर, अपने पूर्वगामी को दुहराता नहीं, उसे आत्मसात् कर उससे आगे बढ़ जाता है।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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