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लेकिन फिर भी 'अनुत्तर योगी' का यह सौभाग्य रहा, कि कई श्रद्धेय अग्रजों और गभीर प्रकृति के खोजी समीक्षक मित्रों ने उसकी लोकान्तरकारी उड़ानों और अपूर्व अनोखी, कुँवारी सम्वेदनाओं को आस्वादित किया है, ग्रहण किया है, और मुक्त कण्ट से उसको स्वीकृति दी है । इससे यह कृति तो कृतार्थ हुई ही, पर यह भी साक्ष्य मिला कि हमारे बीच कुछ ऐसे अग्रगामी और अतिक्रान्तिकारी साहित्य-मनीषी भी हैं, जिनकी चेतना मुक्त और विशाल है, और जो सृजन की आगामी भूमिकाओं के प्रति पूर्ण रूप से संचेतन हैं ।
आशा करता हूँ, कि ऐतिहासिक तथ्यों और पुराकथाओं के प्राप्त उपादानों में मैंने यदि सम्वेदनात्मक ऊरूरत में से कोई हेरफेर किये हैं, तो उनके औचित्य को सृजन के उवत नये उन्मेष के परिप्रेक्ष्य में सही तरीके से समझा और स्वीकारा जायेगा ।
'अनुत्तर योगी' के लेखन के बाद, पाठकों और विवेचकों को ऐसी भ्रान्ति हो सकती है, कि एकमेव महावीर ही मेरे अन्तिम आदर्श और आराध्य हैं, और उनके नाम से प्रचलित जैन दर्शन ही, मेरा अपना भी तत्वदर्शन और जीवन-दर्शन है । ऐसी स्थिति में मैं यह अन्तिम रूप से सूचित कर देना चाहता हूँ, कि महावीर और जैन तत्त्वज्ञान के साथ मुझे इस तरह ‘आइडेण्टीफाई' करना, या तदाकार देखना एक बहुत बड़ी ग़लतफ़हमी होगी । हाँ, यह सच है कि अनुत्तर योगी महावीर के भीतर मैंने अपने समस्त को रचा है, और उन भगवान का यह अनुगृह है कि उन्होंने मेरे भीतर आकार लेना स्वीकार किया है।
बचपन से ही मेरी चेतना, ठीक मेरो आन्तरिक पुकार और पीड़ा के उत्तर की स्वतंत्र खोज के रूप में आगे बढ़ी है। मेरी प्रारम्भिक शिक्षा बेशक जैन पाठशाला में हुई। किशोर वय में ही जैन दर्शन के आधारभूत तत्त्वों से मैं अवगत हो गया था । स्वमावतः ही धार्मिक चेतना होने से, मैं जैन आराधना और आचरण का भी तब अनायास अनुसरण करता था । लेकिन परम्परागत जैन दर्शन में जो जीवन-जगत का तिरस्कार है, वह तभी मुझे समाधान न दे सका था । उसके प्रति मेरे बालक चित्त में बहुत तीखा प्रश्न और विद्रोह भी था । उसके चलते कई बार मेरे किशोर मन पर ऐसा गहरा विषाद और अवसाद छा जाता था, कि मेरे परिजन और मैं स्वयम् भी उसे बूझ पाने में असमर्थ रहते थे । जैन मन्दिरों में नरकों के चित्र
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