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एक और भी महत्वपूर्ण बात इस सन्दर्भ में कहना चाहूँगा । आज एकान्त भौतिक वास्तववाद पर ही, जीवन-जगत और उसकी यथार्थता समाप्त है । तो जो चाक्षुष नहीं, ऐसे भाव-संवेदनों के अननुभूत और अनन्वेषित तमाम क्षेत्रों की सम्भावना को ही नकार दिया गया है । सम्वेद्यता के जो आधार अब तक विदेशी साहित्य-शास्त्र में स्वीकृत रहे हैं, उन्हीं पर हमारी पूरी समीक्षा अब तक अटकी है । वह साहित्य-शास्त्र जिस पश्चिम से आयातित है, वहाँ साहित्य और कलाओं में ही नहीं, दर्शन और विज्ञानों में भी पुरानी मर्यादाएँ निराधार सिद्ध हो चुकी हैं । नई मर्यादाओं और सम्भावनाओं की खोज अनवरत जारी है । खोज का क्षेत्र बहुत अधिक विस्तृत हो गया है, नये क्षितिजों का उदय हुआ है । हम उनके दिये 'रियलिज्म' पर ही खत्म हैं, और वे 'अल्टीमेट रियालिटी' के क्षेत्रों में नयी सम्भावना और सम्वेदना को खोज रहे हैं । एब्राहम मेरलो ने मनोविज्ञान को अध्यात्म से जोड़ दिया है । और विश्व-विख्यात कथाकार सॉल बेलो तथा आइज़क सिंगर, पूर्व-जन्म-स्मृति और मरणोत्तर जीवन के सम्वेदन को अपनी कथा में च रहे हैं । चाक्षुष पर ही अटका हिन्दी का वास्तववादी रूढ़ आलोचक, से अविश्वसनीय अनुभव कह देने में ज़रा भी नहीं हिचकेगा। क्यों कि कुछ को नया ग्रहण करने को वह खुला और प्रस्तुत नहीं । अपनी इसी अवरुद्ध और रूढ़ चेतना के कारण, कुछ समीक्षकों ने 'अनुत्तर योगी' की सम्वेद्यता पर भी प्रश्न उठाया है । ये सम्वेदन बहुत अपरिचित और नये हैं, क्या इन में पाठक हिस्सेदारी कर सकता हैं ? यह एक आम समीक्षकीय प्रश्न हाशिये में दीखा ।
लेकिन आश्चर्य है, कि औसत जागृत भारतीय पाठक और भावक 'अनुत्तर योगी' को पी कर मगन हो गया है । उसकी मुग्धता और तृप्ति का अन्त नहीं । वह इतना तन्मय हो गया, कि असम्वेद्यता का प्रश्न ही उसके सामने नहीं उठा । मुश्किल यह है कि उसने पश्चिमी साहित्य-शास्त्र नहीं पढ़ा है, भारतीय भी नहीं । वह महज़ एक उत्सुक रसिक, जिज्ञासु और एक तरह से मुयुक्षु किस्म का पाठक है । वह रचना में अपने प्रश्नों के उत्तर
और कुण्ठाओं को मुक्ति भी अनजाने ही खोजता है । वह उसे मिल जाता है, तो और कुछ उसका सरोकार नहीं । इस तरह देखता हूँ, कि रचना का सच्चा और अचूक मूल्यांकन प्रबुद्ध और सतर्क समीक्षा के स्तर पर नहीं होता, सीधे-सीधे रचनाकार को 'रिसीव करने वाले 'अनसॉफ़िस्टीकेटेड' विशद्ध भावक पाठक के स्तर पर होता है ।
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