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की गयी। तो उसका मुकाबिला करने को जैनाचार्यों ने भी अपराजेय न्यायशास्त्र रचा । इस तार्किक संग्राम के वाग्जाल में महावीर और अनेकान्त का अविरोधी और समन्वयकारी मौलिक स्वरूप ही लुप्तप्राय हो रहा। महावीर को वेद-विरोधी मूर्ति यहीं कहीं से उभरती लगती है। और वह आज के पूरे इतिहास में एक अटल भ्रान्ति बन कर प्रतिष्ठित हो गयी है। सारे संसार के इतिहासकारों से मेरा विनम्र अनुरोध है, कि मेरे उक्त कथन पर गौर करें,
और उसकी प्रामाणिकता को स्वयम् जाँच कर, इतिहास के इस भयंकर 'ब्लंडर' का खात्मा करें।
क्रमशः तीसरे, चौथे, पांचवें अध्यायों में मैंने उपरोक्त पूरे प्रकरण का समावेश किया है। पाँचवाँ अध्याय है : 'अनेकान्त का मानस्तम्भ'। उसमें समवसरण में समागत ग्यारह गणधरों के साथ शास्ता महावीर का जो क्रमशः सम्वाद है, उसके अन्तर्गत, तार्किक नहीं--शुद्ध अनुभूति-सम्वेदन के स्तर पर, कला की सृजनात्मक ऊर्जस्वलता के साथ, महावीर के उस सर्वाश्लेषी, सर्वसमन्वयी विश्व-पुरुष रूप को, आत्मानुभूति के अतर्य आधार पर प्रतिष्ठित करने की कोशिश की गयी है।
. यहाँ मेरा उद्देश्य इन पाँच अध्यायों की कैफ़ियत देना नहीं है। लेकिन इनमें कुछ ऐसे ज़रूरी मुद्दे हैं, जो शंकित कर सकते हैं पाठक को, इसी से उनकी प्रामाणिकता को आधारित कर देना जरूरी लगा। समवसरण के 'मोटिफ' पर भी जो सविस्तार कहा मैंने, उसका मकसद है अपने सहधर्मी रचनाकारों का ध्यान, अभिव्यक्ति के एक बहुत सम्पन्न और प्रिज्मेटिक (सहस्र-पहलू बिल्लौर) माध्यम या प्रतीक की ओर आकृष्ट करना । शेष अध्यायों के कई विलक्षण कथ्यों और विविध शिल्प-प्रयोगों के बारे में कोई चर्चा यहाँ प्रासंगिक नहीं । रचना अपने सौन्दर्य को प्रकट करने में स्वयम् समर्थ है।
महावीर-कथा के जो ऐतिहासिक उपादान मिलते हैं, उनके आधार पर एक रूप-रेखा या कण्टूर भर उभर सकता है । महावीर का जन्म-स्थान, उनका राजवंशी सन्दर्भ, उनके पारिवारिक सम्बन्ध, उनके तपस्याकाल और तीर्थकरकाल के भ्रमण-विहार का भूगोल, उस काल के आर्यावर्त का विदेशियों द्वारा संयोजित विवरण, राज-समाज-अर्थनीतिक व्यवस्था का विनियोजित
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