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________________ १५ इस प्रसंग पर एक और अचम्भा यह होता है, कि उपस्थित ब्राह्मणों के मन में परस्पर विरोधी वेद-उपनिषद् वाक्य आते न आते, भगवान पहले ही स्वयम् उन वाक्यों को उच्चरित कर के, उनमें झलकते विरोधाभास को क्षण मात्र में, अत्यन्त प्रत्ययकारी ढंग से विसर्जित कर देते हैं। इसका कारण यह था कि वे सर्वज्ञ थे, और उनका सत्ता-साक्षात्कार अनेकान्तिक था, अनन्तआयामी था। उसमें एकत्व और वैविध्य एक साथ झलक रहे थे। उसमें सारे ही वस्तु-परिणमन और उनकी विविधमुखी अभिव्यक्तियों का समावेश और स्वीकार था। जब सत्ता अपने स्वभाव में ही अनेकान्तिक है, तो अवबोधन (पर्सेप्शन), अभिज्ञा और अभिव्यक्ति का वैविध्य अनिवार्य है। उन्हें सापेक्ष दृष्टि से देख कर, एकत्व में सुसंगत और समन्वित करना होगा। अनेकान्त में विरोध का प्रश्न ही नहीं उठता, समवेत और समावेश ही उसकी एक मात्र परिणति हो सकती है। इस कारण, यह तो मूलतः ही सम्भव न था, कि महावीर वेद और ब्राह्मण का विरोध करते। उल्टे आगम में एक ऐसा दस्तावेज़ी साक्ष्य मौजूद है-'गणघरवाद' नामक ग्रन्थ, जिसमें अपने ग्यारह ब्राह्मण श्रेष्ठ गणधरों के साथ भगवान का एक लम्बा सम्वाद है। उसमें आदि से अन्त तक महावीर ने, उन ब्राह्मण पण्डितों द्वारा परस्पर विरोधी वेद-उपनिषद् वाक्य उद्धृत किये जाने पर, उसे विरोधाभास मात्र कर कर नकार दिया है, और अपनी अनेकान्तिनी कैवल्य-प्रभा में उन्हें यथा-सन्दर्भ पूर्ण स्वीकृति दी है। साधारणतः सारा आगम वाङ्गमय, और खास तौर पर 'गणधरवाद' ग्रन्थ इस बात का अकाट्य साक्ष्य प्रस्तुत करता है, कि महावीर वेद और ब्राह्मण विरोधी कतई नहीं थे। उल्टे वे तो पैसठ दिन उस काल के मूर्धन्य वेद-वाचस्पति इन्द्रभूति गौतम की प्रतीक्षा में मौन रहे। वही एकमेव महाब्राह्मण भगवान का प्रथम श्रोता और आर्य प्रज्ञा की महाधारा का आगामी संवाहक हो सकता था। संसार में, एक साथ विरोधाभास और समन्वय का दूसरा ऐसा स्तम्भ चीन्हना मुश्किल है। ऐसा महावीर, वेद-विरोधी कैसे हो सकता है ? इतिहास में रूढ़ हो चली इस महाभ्रान्ति का एक कारण यह हो सकता है, कि उत्तरकाल में जिनेश्वरी प्रज्ञा ने जब सम्प्रदाय का रूप ले लिया, तो साम्प्रदायिकता से उन्मेषित दिग्गज जैन आचार्यों ने अनेकान्त और स्याद्वाद को समन्वय और मण्डन के बजाय खण्डन और विखण्डन का अस्त्र बनाया। अनेकान्त की सर्वोपरिता और सत्यता जब वैदिक परम्परा को असह्य हो गयी, तो उसके भंजन के लिये प्रखर तार्किक न्याय-शास्त्र की रचना Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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