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तीर्थंकर की गन्धकुटी । आकाश- स्फटिक की चन्द्रिम आभा से यह निर्मित है । यह एक ऐसा स्फटिका है, जो चन्द्रमा की चट्टान में से कट कर आया है । इसके भीतर विशुद्ध जल लहराता रहता है । इसी से अपनी आभा में स्थिर हो कर भी यह गन्धकुटी अपने ही आप में प्रवाहित है : बहते जल का सा आभास देती है । अपने ही आप में ऊर्मिल कोई चाँदनी का सरोवर । द्रव्य का शुद्ध और नग्न परिणमन ही इस गन्धकुटी में साकार हुआ है ।
इस गन्धकुटी की मूर्धा पर एक स्थिरीभूत रक्त ज्वाला का आसन है । जो कभी विशाल केशरिया कमल-सा प्रतिभासित होता है । कभी पद्मराग आरक्त शतदल - सा । मानो सृष्टि के सारांशिक रक्त से उद्भिन्न हुआ है यह
कमल ।
यह रक्त-लोहित कमलासन चारों ओर से खुला है । यहाँ कोई कटनी, आधार, अवलम्ब, रेलिंग, द्वार नहीं । सुनील चिदाकाश में वह उन्मुक्त बिछा है । दिशा, देश, काल यहाँ से नीचे छूट गये हैं । • लेकिन फिर भी इसके परिप्रेक्ष्य में विद्यमान है, वह जीवन्त मर्कत - पल्लवों से मण्डित, अशोक वृक्ष | उसकी हरिताभ चूड़ा में मुक्ति रमणी के उज्ज्वल गौर चरण झलक रहे हैं । और ऊपर के अनाहत अन्तरिक्ष में से झूल रहे हैं, एक के नीचे एक तीन प्रोज्ज्वल छत्र, उस कमलासन के ऊपर । यहाँ आकाश अपने ही दर्पण में अपने को देख रहा है। मानो कि सिद्धालय की चन्द्र-शिला से हो कट कर झूल आये हैं ये तीन छत्र, अखिलेश्वर के मस्तक पर ।
' पर कहाँ है वह अखिलेश्वर ? लोहित कमलासन सूना है । वह प्रतीक्षमान है । दिशाएँ प्रतीक्षमान हैं । काल चक्र स्तम्भित हो कर महाकालेश्वर प्रभु की प्रतीक्षा में है ।
कहाँ अटक गये वे देश- कालों के राजराजेश्वर ? उन्हें और अटक कैसी ? कैवल्य - ज्योति का वह महासमुद्र कहाँ स्तम्भित और ओझल है ? लोकालोक सूर्य ने क्यों अपने को छुपा रखा है ? कहाँ अन्तरित रह गया वह ?
त्रिलोक, त्रिकाल चौंक कर ताक रहे हैं, दिशाओं के छोरों में । क्या सृष्टि को रुक जाना होगा ?
सार्वलौकिक समवसरण का विभ्राट वसन्तोत्सव सहसा ही स्तम्भित हो गया है । हर परकोट, गवाक्ष, प्रांगण, अलिन्द पर नाचती अप्सराएँ चित्र - लिखित - सी रह गयी हैं । संगीत - वाजिन्त्रों की विस्फोटक ध्वनियाँ और अनवरत
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