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________________ उठ रहा है। और ये मण्डल एक दूसरे से उत्तीर्ण होते ऊों के छोर तक मानो चले जा रहे हैं। और इम महान आरोहण प्रक्रिया में अचानक ऋषभ को एक कूट के आकार का सिंहासन स्तब्ध दिखायी पड़ा। उत्पाद और व्यय के निरन्तर जारी खेल के भीतर, यह सत्ता का ध्रुवासन है। यह नित्यशाश्वत का अविनाशी राज्य है। यह त्रिलोकीनाथ का सिंहासन है। तीनों लोक, तीनों काल के निरन्तर परिणमनशील द्रव्यों के सद्भुत सारांश ने यहाँ एकत्र हो कर रूप-परिग्रह किया है । यहाँ शुभ्र-निरंजन सत्ता-पुरुष ने भंगुर पुद्गल को अमर के सौन्दर्य से भास्वर कर दिया है। यहाँ मृण्मय स्वयं ही चिन्मय हो उठा है । अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों के मस्तक पर बिछा है यह सिंहासन। स्वर्ग, नरक, नरलोक, पशुलोक के चार पायों पर यह आसीन है। तीनों लोकों में मण्डलाकार व्यापता हुआ, यह मानो ऊँचाई में लोकाग्र की प्राग्भार-पृथ्वी को स्पर्श कर रहा है । सिद्धालय की अर्द्ध-चन्द्राकार परब्राह्मी भूमि पर ही मानो इसकी चूड़ान्त गन्धकुटी उटी है। इसकी अनेक परिक्रमाओं और कटनियों के रेलिंगों में रत्न-प्रभाएँ तरंगित हैं । असंख्यात द्वीप-समुद्र उनके ओरे-छोरे भाँवरे दे रहे हैं। सोलहों स्वर्गों की देव-सृष्टियाँ उन कटनियों में विहार कर रही हैं । अवयेक, अनुदिश, सर्वार्थसिद्धियों के विमान उन रेलिंगों और अलिंदों में झूम रहे हैं। वे रत्नों की बन्दनवारों की तरह जगमगा रहे हैं। दिव्य संगीतों में बज रहे हैं। ___ डमरू के आकार उठे इस हिरण्य सिंहासन की मूर्धा पर विस्तृत 'ब्राह्मी' नाम की भूमि है। उसके वक्ष-प्रमाण परकोट, घूमते सौरमण्डल और तारामण्डल से निर्मित हैं। कितने ही सूर्य और चन्द्रमा उन तारा-मण्डलों के बीच-बीच में परिक्रमायित हैं। और एक महाचन्द्र तथा महासूर्य से बना है इसका गोपुर, जिसकी मूर्धा पर ब्रह्माण्ड-गोलक घूम रहा है। इस वैदूर्य रत्नाभा वाली भूमि की शोभा ऐन्द्रजालिक है। बादलों की उजली जालियों में जैसे इन्द्रधनुष तैर रहे हैं। शुभ्र ज्योति के मैदानों में जैसे प्रकृत रंगों की नदियाँ बह रही हैं। इन्द्रगोप के इस माया-राज्य में यह कौन जादूगरी खेल रही है ? रोशनी की नावों में जैसे कई हरियाली पृथिवियाँ उठी हैं । और ऐसी ही एक पृथिवी के कालागुरु पर्वत पर चारों दिशाओं में मुख किये, चार सोनहले सिंह यों मस्तक उठाये बैठे हैं, मानो स्वस्तिक रच रहे हों। उनके मस्तकों पर प्रोद्भासित है, उषा के वक्षदेश जैसा सहस्रदल कमल । जिसकी किंशुकी पंखुरियाँ, दिगन्तों के उस पार का पता दे रही हैं। इसकी केसर-कणिका में शिव-शक्ति के शाश्वत परिरम्भण पर आरूढ़ हैं, त्रैलोक्येश्वर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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