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________________ केशर यहाँ सवर्ण हो गयी है : सुवर्ण यहाँ केशर हो गया है। आद्या माँ पृथा यहाँ अपनी ही नाभि के कमल पर नग्न लेटी है, पराग के चीर उतारती हुई, अपनी योनि को अपने उरोजों के बीच विलीन करती हुई, अपने उरोजों को अपने हृदय के पद्म-कोरक में समेटती हुई । श्रीमंडप की परिक्रमा में बेशुमार ध्वजाएँ और तोरण, नानारंगी अग्निमंडपों की रचना कर रहे हैं। जिनमें यज्ञों के हुताशन हैं। प्राणों की गहन अँधेरी नाड़ियों में से नीराजन उजल रहे हैं । सुगन्धित धूम्र-लहरों में से सुवर्णरत्नों के धूपायनों की पंक्तियाँ उठ-उठ कर लीन हो रही हैं । उनकी छाया में देव-देवांगना, गन्धर्व-किन्नरियाँ, उर्वशियाँ, रम्भाएँ, अज्ञात अन्तरिक्षीय संगीत की सुर-मालाओं में नाचते-गाते उल्लास से मूर्छित होते जा रहे हैं। · · ·ओह, भगर्भ में यह कैसा गर्जन हो रहा है ? यह कैसा अनाहत मेघनाद गड़गड़ा रहा है । ओह, समस्त ब्रह्माण्ड अथाह नक्काड़े की तरह बज रहा है। यह अविराम, अखण्ड दुन्दुभि घोष न देवों का है, न दानवों का है, न मानवों का । यह विशुद्ध नाद तत्त्व है। सर्वथा स्वाधीन, स्वतंत्र, वाद्यों से परे, वीणाओं, मृदंगों, शंख-घंटाओं से परे । आकाश से भी परे, यह निरालम्ब शून्य में से उठा आ रहा है । यह सर्वतंत्र-स्वतंत्र, मुक्त, स्वच्छन्द नाद तत्त्व है । इस में एक साथ असंख्य दुन्दुभियाँ, असंख्य वीणाएँ, अनगिनती डमरू, पणव, तुणव, काहल, कास्य घंट, शंख, शहनाइयाँ एक महा समवेत में बज रही हैं। मंगीतकार यहाँ कहीं कोई नहीं हैं। · · ·और स्तब्ध आकाश, समुद्रों को बजा रहा है। अतल-वितल को झंकृत कर रहा है, समस्त ऊंचाइयों को गला कर त्रिलोकी नाथ के पादप्रान्त में बहाये दे रहा है । ___ योगी ऋषभ के आनन्द और आश्चर्य का पार गहीं है । रूपी और ऐन्द्रिक सौन्दर्य भी कितना सूक्ष्म, अनन्त और अव्याहत हो सकता है। भंगुर कही जाती यह लीला भी कितनी अविरल और नित्य लग रही है। मानो मृत्यु और विनाश है ही नहीं। तत्त्व में और सत्ता में हर चीज़, हर जीवन, सतत जारी है। अनाहत और अक्षय है अस्तित्व की यह धारा । जड़ और चेतन का भेदविज्ञान यहाँ लुप्तप्राय है। यहाँ तो कुछ भी जड़ नहीं दिखाई पड़ता है, सभी कुछ यहाँ चिन्मय और चेतन है । हर आविर्भाव यहाँ आत्म-संचेतन है । स्वयम् को देख रहा है । स्वयम् को भोग रहा है । सब कुछ यहाँ जीवन की ऊष्मा से भावित है, अचूक है, अक्षुण्ण है। . . और इस हिरण्याभा के विराट् प्रसार के केन्द्र में एक पर एक कई कटनियों और परिक्रमाओं वाला गोलाकार विशाल सिंहासन उदय हो रहा है। जैसे सूर्णिम आभा की सरणियों पर सरणियाँ उठ रही हैं । मण्डल में से मण्डल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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