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________________ २४ बहते जल-लोकों में रंगीन लहरों के भंगों और छल्लों में छहरते हुए, अपने फेनों की श्वेत-प्रभा में रंगातीत चित्रसारी कर रहे हैं। अन्तरिक्ष के बारीक विवर कुमारी के गर्भ की तरह खुल रहे हैं। और उनमें से निधियाँ और विभूतियाँ, ऋद्धियाँ और सिद्धियाँ, सुन्दरियों की राशि की तरह उमड़ रही हैं । मूर्त और अमूर्त, सूक्ष्म और स्थूल, आत्मा और शरीर की यह तात्त्विक सम्भोग-शैया है। और ऋषभ ने देखा कि यहाँ की भूमि निरन्तर प्रवाहित हो कर भी, छोर पर, निश्चल दीखती है। यहाँ के नदी-निर्झर अंगूरी नीहारिका में रंगों को लयावलियों से चित्रित होते रहते हैं । यहाँ रत्न नहीं है, स्वर्ण नहीं है, धातु नहीं है, पदार्थ नहीं है । उनके अर्को और रसायनों से यहाँ रंगसारी हो रही है। यहाँ हरी आभाओं के वृक्ष हैं। मेघ-मेदुर विभा की गिरिमालाएँ हैं। उनके शिखरों पर नील प्रभा के मयूर नाच रहे हैं। उन गिरियों के हार्द में पीले कमलों के केसर से झड़ती वापियाँ हैं । कुन्द-पारिजात की कणिकाओं जैसे सरोवर हैं। मर्कत की नदी में से पनिम शीतल वृक्षावलियाँ आविर्मान हैं। उनमें गुलाबी, पीली, मोतिया, काशनी, सन्दली, केसरिया ज्योतियों के फल-फूल अंकुरित होते रहते हैं । प्रभा के मानसरोवरों में पद्मराग ज्योति के कमल खिले हैं। वे मन के गोपन घर की तरह दीपित हैं। उनके किनारे, फूटते उजाले के बादलों जैसे हंस क्रीड़ा कर रहे हैं । इस अन्तरिक्षीय जगती का शब्दों में साक्षात्कार शक्य नहीं । ऋषभ के भीतर एक अनहद नाद चल रहा है, वही एक नाद अनेक पक्षियों में कलरव कर रहा है, नाना सुरों में, बोलियों में, भाव-भंगिमाओं में, सूरत-सीरत में, चित्र-विचित्र भूगोल-खगोल में आकृत हो रहा है । भीतर के इस एकाग्र बोध में से ही ऋषभ इस अनन्त रंगी, अनन्त आयामी और आयाम से भी अतीत हो रही जगती का एकाग्र ऐन्द्रिक अनुभव कर रहे हैं । ऐन्द्रिक सुख इससे आगे नहीं जा सकता । वही यहाँ अपनी चरम वासना की विदग्ध अंगड़ाई तोड़ कर अतीन्द्रिक हो जाता है। इस अवबोधन और रसास्वादन में, ऐन्द्रिक और अतीन्द्रिक की सीमाएँ डूब गई हैं, खो गई हैं। · आनन्द के इस समुद्र में। · · · अवबोधन और सम्वेदन के इस अनुत्तर बिन्दु पर खड़े हो कर, योगी ऋषभ ने अचानक देखा : विराट् सिद्धचक्र मंडल की तरह हिरण्य आभा से झलमलाता श्रीमंडप सम्मख तैर आया है। ऐसी गहरी आत्मिक सुगन्ध से महक रही है यह भूमि, जैसे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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