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सपाट वर्णन नहीं, बल्कि एक प्रक्रियात्मक अनावरण और सृजन है। उसमें केवल रंग, आकृति, चित्र, शिल्प, स्थापत्य, नाट्य-संगीत के ब्यौरे नहीं, बल्कि गहरे भाषाशय हैं, भाव-शबल और अर्थ-शबल विचित्र प्रतीकों का अनुभावन, उद्भावन और जीवन्तीकरण है। उसमें गहराई, ऊँचाई, विस्तार और सूक्ष्मता के सारे आयामों का एक संश्लिष्ट और अनन्त-सम्भव, अनन्त-आयामी रचनाप्रयोग है।
विन्ध्याचल की एक ऊँची चोटी पर, एकाकी समाधीत योगी ऋषमसेन को एकाएक ध्यान में महावीर के कंवल्य-लाम का भान होता है। उनका ध्यान गहिरतर हो जाता है। और विपुलाचल पर एकाकी अवस्थित महावीर की कैवल्य-ज्योति का उन्हें साक्षात् दर्शन होता है। उसके बाद समवसरण की रचना की सारी प्रक्रिया उत्तरोत्तर उनके ध्यान-विजन में अनापरित होती जाती है, और वे प्रत्ययकारी ज्ञानात्मक सम्वेदना से उन्मेषित और अभिभूत हो कर, क्रमशः जो देखते हैं, उसे मन ही मन कहते चले जाते हैं। अपने ध्यान में अपने स्थान पर अचल रह कर मी, वे मानो अपनी ज्ञानात्मक ऊर्जा से परिचालित हो कर, बेशुमार मण्डलाकार समवसरण की हर परिक्रमा में विचरण करते हैं, प्रत्येक रचना के सूक्ष्म से सूक्ष्म 'डीटेल' तक के साथ तन्मय होते हैं, उसके गहरे भावाशय और बोध में अवगाहन करते हैं, और अपनी उस ज्ञानानुभूति और सौन्दर्यानुभूति को मानो अपने स्वयं के उद्बोधन के लिए ही कहते चले जाते हैं। __इस प्रकार ध्यानस्थ योगी ऋषमसेन के माध्यम से ही मैंने समवसरण की विराट्, भव्य-दिव्य रचना का साक्षात्कार सृजन द्वारा अपने भावुक को कराया है। उसमें जहाँ एक ओर कॉस्मिक आकार-प्रकार की भव्यता और उत्तुंगता है, वहीं एक-एक डीटेल का सार्थक, भावात्मक, नाम-गुण-संज्ञात्मक विवरण मी है। पिण्ड में ब्रह्माण्ड और ब्रह्माण्ड में पिण्ड का आकलन करने की दिशा में वह एक अत्यन्त सजीव कला-प्रयोग हो सका है। एक तरह से यह अध्याय एक अन्तहीन धारावाहिक कविता जैसा हो गया है। अनन्त और असीम पुरुष की त्रिकाल-वाही व्यक्तिमत्ता के अनुरूप ही। साधारण, सपाट कथारुचि का पाठक इससे ऊब सकता है। लेकिन सूक्ष्म, गहरी भाव और सौन्दर्यचेतना से ज्वलित पाठक, आशा है, इस लम्बी कविता में अनायास तन्मय और रम्माण हो रहेगा।
पहली बात तो यह, कि यह सारा चित्रण लेखक नहीं करता। वह योगी ऋषमसेन के ध्यान में एक जादुई प्रक्रिया या अतिभौतिकी के रूप में झलकता
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