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________________ 'मिथ्स् अॅण्ड सिम्बॉल्स ऑफ़ इण्डिया' तथा 'फिलॉसॉफ़ीज़ ऑफ़ इण्डिया पढ़ कर पता चलता है, कि भारत के अधिकांश प्रबुद्ध जन भी परम्परागत भारत देश के दर्शन, मिथक, मोटिफ़, मण्डलों और प्रतीकों से कितने अनभिज्ञ हैं ? लेकिन मैंने लक्षित किया है कि हमारे आधुनिक चित्रकारों ने इस सम्पत्ति के शाश्वत सौन्दर्य और मावाशय को समझा है। तांत्रिक मण्डलों को आधार बना कर स्वामिनाथन् जैसे हमारे कई शीर्षस्थ चित्रकारों ने भव्य चित्रों की रचना की है। इतना ही नहीं, कई पश्चिमी चित्रकारों ने भी प्राचीन भारतीय मोटिफ़, मण्डलों, मिथकों को ले कर विलक्षण रचना-कार्य किया है। लेकिन हमारा आधुनिक काव्य और साहित्य, विरल अपवादों को छोड़ कर, इस स्रोत से सर्वथा अछूता ही रह गया। हमारा आधुनिक शिल्प भी अमूर्तन या विलक्षण मूर्तन के आसपास ही चक्कर काट रहा है। हमारे संगीत और नृत्य तो परम्परा से इतने अटूट जुड़े हुए हैं, कि कोई शिकायत हो सकती है तो यही कि क्यों ये पश्चिमी संगीत-नृत्य की तरह गतिशील (डायनमिक) नहीं, प्रगतिशील नहीं ? क्यों इनमें नित-नव्य और स्वच्छन्द रचना नहीं हो पा रही ? __कुछ बरस पहले, जॉर्ज नाम के एक अमरीकी कवि मित्र से गणेशपुरी के 'श्रीगुरुदेव आश्रम' में भेंट हुई थी। उन्होंने हमारे परम्परागत धार्मिक काव्यमोटिफ़ 'मानस-पूजा' को आधार बना कर, अंग्रेजी में 'श्रीगुरु मानस पूजा' नाम की एक लम्बी कविता रची थी, जिसमें 'शिव मानस-पूजा' जैसे स्तोत्रों को समक्ष रख कर, मानस-पूजा के सारे ही अंगों और उपकरणों का अत्यन्त आधुनिक काव्य-भंगिमा में विनियोजन किया गया था। वह घटना मुझे मूलती नहीं। आश्चर्य है, कि आधुनिक भारतीय प्रतिमा में गहराई और सूक्ष्मता का आयाम कितना विघटित हो गया है। जब कि पश्चिमी कलाओं में वह उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है। सूक्ष्मता, गहराई या अमूर्तन के नाम पर हम बिना समझे-बूझे पश्चिम की नक़ल मात्र करते हैं। शुरू से ही मेरे मन में था, कि तीर्थंकर के समवसरण के भव्य ब्रह्माण्डीय 'मोटिफ़' को मैं यथा प्रसंग एक अभिनव सौन्दर्यबोध, मावाशय, और नव्यतर शिल्प में रचूंगा। इस खण्ड के उक्त द्वितीय अध्याय में मैंने वह काम किया है। एक सपाट पट पर केवल एक-आयामी चित्र के रूप में मैंने उसका निरा वर्णन नहीं किया है। मैंने उसे अकस्मात् देवों द्वारा क्रियमाण एक बहुआयामी रचना या अतिमौतिकी (फिनॉमनन) घटना के रूप में प्रस्तुत किया है। वह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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