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________________ ९ इस 'मोटिफ' का जैन चित्रकला और शिल्प में भी प्रचुरता से सृजन हुआ है। आज भी कई विशिष्ट जैन मन्दिरों, तीर्थों और धर्मायतनों में समवसरण की रचना के भित्तिचित्र, पटचित्र, और शिल्प देखे जा सकते हैं । कुछ स्थानों पर, चित्र, मूर्ति, और नाना पदार्थों के एकत्र उपयोग द्वारा, विशाल भवन के बीच मण्डलाकार समवसरण की रचना देखने को मिलती है । इसे देख कर, देश-काल की सीमा में ही देश - कालातीत किसी महासत्ता ET आभास-सा होता है । मनुष्य की उत्तुंग आन्तरिक इयत्ता, और सर्वोपरि प्रभुता का एक भव्य-दिव्य रोमांचक साक्षात्कार होता है। प्रस्तुत तृतीय खण्ड के द्वितीय अध्याय में, शाश्वत सौन्दर्य के प्रतीकस्वरूप इस समवसरण के 'मोटिक' को मैंने एक नव्यतर सौन्दर्य-बोध, और अभिनव काव्य-शिल्प द्वारा रचने का प्रयत्न किया है। हमारे देश के साहित्यक्षेत्र में अभी पश्चिम से आयातित आधुनिक विषयवस्तु (थीम) और 'मोटिफ़' का ऐसा प्रबल दबाव और प्रभाव है, कि हमारे अधिकतर रचनाकार न तो प्राचीन मिथकों और प्रतीकों से यथेष्ट रूप में परिचित हैं, और न उनकी शाश्वत माव-दर्शिता और अर्थ - गर्भिता में गहरे उतरने की अन्तर-दृष्टि उनके पास है । तब अपने सृजन में उन्हें युगानुरूप नव्यतर आशय और रूप देना तो बहुत दूर की बात है । धर्म, अध्यात्म, दर्शन, योग, कला और साहित्य की हमारी जो जीवन्त और समृद्ध परम्परा है, हमारी आज की शिक्षा-पद्धति में उसको अवकाश ही नहीं । कुछ अपवादों को छोड़ कर, गहराई से उसका कोई अध्ययन-अध्यापन या अन्वेषण हुआ ही नहीं । हमारी नई पीढ़ियाँ या तो उससे सर्वथा अपरिचित हैं, या उसे महज कल्पना की उड़ान या रोमानी यूटोपिया कह कर उसका मज्जाक़ उड़ा देती हैं। एक बहुत सतही प्रासंगिकता से नई पीढ़ी इतनी भ्रमित है, कि ज्ञान और संस्कृति की जो अमृतस्रावी विरासत हमारे पास है, वह उसे महज पुरातत्त्वालय ( म्यूज़ियम) की वस्तु लगती है। उसे लगता है, कि ठीक आज के प्रसंग में उसका कोई मूल्य नहीं, अर्थ नहीं, योगदान नहीं । यानी क्षणिक सामयिकता पर ही सब समाप्त है, शाश्वत भाव, सौन्दर्य या शाश्वत चेतना अथवा सत्ता जैसी कोई चीज उनके मन अस्तित्व में ही नहीं । लेकिन भारत की इस कालाबाधित विरासत को समझा है मैक्स मूलर ने, जर्मनी के महापण्डितों ने, हेनरिख झीमर ने, कार्ल गुस्तेव जुंग ने, मदाम बलात्स्की और महाकवि यीट्स ने, और आनन्दकुमार स्वामी ने, जो आधे यूरोपियन और आधे भारतीय थे । हेनरिख झीमर की दो लाजवाब किताबें Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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