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दूसरे इस अध्याय में प्राचीन पौराणिक मिथक के एक अनोखे 'मोटिफ' को, एक नये प्रतीकात्मक, मनोवैज्ञानिक प्रयोग के रूप में रचना भी कम दिलचस्प नहीं था ।
दूसरा अध्याय है, ' त्रैलोक्येश्वर का समवसरण' । महावीर के कैवल्य-लाभ का प्रतिभास पा कर, तमाम स्वर्गों के देव मण्डल, अपने श्रेष्ठ वैभव के साथ मन्दार फूलों की वर्षा करते, गाते-नाचते, वृन्द-वादन करते हुए, राजगृही के विपुलाचल पर उतर कर सर्वज्ञ तीर्थंकर महावीर का समवसरण रचते हैं । जैन पुराकथा के अनुसार, उनके शलाका-पुरुषों की विभिन्न श्रेणियों में, तीर्थंकर ही लोक की सर्वोपरि व्यक्तिमत्ता होता है । वह तीनों लोक और तीनों काल का अधीश्वर होता है । देवलोक जो उनके समवसरण की रचना करते हैं, वह एक प्रकार से उनकी भागवदीय धर्मसभा होती है । वह त्रैलोक्याधिपति का ईश्वरीय राज दरबार होता है । मानो समग्र विश्व-ब्रह्माण्ड का वह एक 'मीनियेचर' रूप होता है । सर्वकाल और सर्वदेश के तमाम एकत्रित ऐश्वर्यों का उसमें समावेश होता है । वह प्राणि - मात्र के एकमेव वल्लभ, त्रिलोकीनाथ की ब्रह्माण्डीय राज सभा होती है। उसमें चार गति और चौरासी लाख योनि के समस्त जीव प्रभु के श्रोता बन कर उपस्थित होते हैं। सारे जीवों को वहाँ उन जगदीश्वर के चरणों में अनायास शरण, शान्ति और समाधान मिलता है । उसमें सम्राट से लगा कर श्रमिक और शूद्र तक को समान स्थान प्राप्त होता है । समत्व, शरण और समाधान का वह चरम तीर्थ-स्थल होता है ।
समवसरण की परिकल्पना में तीर्थंकर केन्द्रीय गन्धकुटी की मूर्धा पर अधर में आसीन होते हैं । और उनके चारों ओर अनेक वर्तुलों में व्याप्त, महा-मण्डलाकार समवसरण की देवोपनीत रत्निम रचना होती है । जैन कवियोगियों ने अपने पौराणिक महाकाव्यों में समवसरण की रचना के वर्णन में अपनी सारी कविताई को चुका दिया है । विराटत्व, देवत्व और भगवता का ऐसा सांगोपांग विजन अन्यत्र मिलना मुश्किल है । इस तरह समवसरण जैन सौन्दर्यबोध, कला, कविता, नाट्य, नृत्य, चित्रसारी, शिल्प और स्थापत्य का एक अद्भुत समन्वित प्रतीक प्रस्तुत करता है । वह एक समग्र और शाश्वत सौन्दर्य का स्थायी कला- 'मोटिक' हो गया है। सभी जैन महाकवि, बारम्बार इस 'मोटिफ़' के कलात्मक मूर्तन में परा सीमा तक गये हैं । एक प्रकार से समवसरण अनन्त देश - कालगत जीवन-जगत और उसके विविध परिणमनों का एक कलात्मक साक्षात्कार और प्रतिमूर्तन है ।
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