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खण्ड में है प्राचीनों का आर्यावर्त और हमारा भारतवर्ष । इसी की मूर्धा पर खड़े हैं, अवसर्पिणी काल के चरम तीर्थंकर महावीर । जैनों के अनुसार वही हमारे वर्तमान कलिकाल के शास्ता और विधाता हैं । उन्हीं का धर्मचक्र हमारे युग में प्रवर्तमान है । चक्राकार रूप में, क्रमशः बारम्बार धर्म का पतन और फिर उसका अभ्युत्थान, यही इस धर्मचक्र द्वारा प्रतीकायित है । भगवान कुन्दकुन्द हों, कि भगवान हेमचन्द्र हों, कि भगवान् शंकर, वल्लभ, रामानुज, नानक हों, कि आज के भगवान रामकृष्ण, रमण महर्षि, श्री अरविन्द हों, कि वर्तमान के भारतीय योगीगुरु हों, कि पौर्वात्य-पश्चिम की जुडाइक सन्त परम्परा हो, कि क्रीस्त और उनके अनुशास्ता सन्तों की धारा हो, कि मोहम्मद और जथुस्त्र हों, कि सूफ़ियों का दिगम्बर सर्मद हो, कि पश्चिमी गोलार्ध के सुकरात-प्लेटो-एरिस्टॉटल हों, कि आइन्स्टीन और कार्ल मार्क्स हों, ये सब उसी एकमेव धर्मचक्र प्रवर्तन की देश-कालानुरूप अभिव्यक्तियाँ हैं ।
इस विराट और धारावाही पट पर जब विश्व-पुरुष महावीर का विज़न मेरे कवि के समक्ष प्रकट हुआ, तो देश-कालगत मूगोल में भी उनके उत्तुंग
और आकाशी व्यक्तित्व की सार्वभौमिक व्याप्ति को कला द्वारा मूर्त करना मुझे अनिवार्य जान पड़ा । मीतर के अनन्त अन्तरिक्ष के स्वामी को, बाहर के विराट् अन्तरिक्ष में, एक मूर्त भूगोल और इतिहास के आरपार लोकयात्रा करते दिखाना ज़रूरी महसूस हुआ। महावीर का व्यक्तित्व जिस क़दर 'ग्लोबल' था, सर्वतोमुखी और सार्वभौमिक था, उसी के अनुरूप जानी हुई पृथ्वी पर उनका ब्रह्माण्डीय परिक्रमण और चंक्रमण कला में मूर्त न हो, तो महावीर की समग्र 'इमेज' (प्रमूर्ति) और व्यक्तिमत्ता का पूर्णत्व बोधगम्य नहीं हो सकता । ज्ञात पृथ्वी के छोरों तक विचरता एक दिगम्बर आकाशपुरुष, जो हठात् एक दिन पृथ्वी की सीमा का अतिक्रमण कर, हमारी आँखों के पार ओझल हो जाता है, निर्वाणं के तट में उतर जाता है। ताकि अपने ही त्रिकालाबाधित ज्ञान की परिक्रमा में, बारम्बार अपने धर्मचक्र प्रवर्तन द्वारा, युगयुगान्तर के नवनवीन सूर्यपुरुषों और शलाका पुरुषों में वह प्रकट हो सके।
ततीय खण्ड में तीर्थंकर का धर्मचक्र-प्रवर्तन, सत्य को सदा बन्दी रखने वाले हिरण्मय घट के विस्फोट, और उसके साथ उससे निष्पन्न वणिक सभ्यता के मूलोच्छेद पर आ कर, एक युगान्तरकारी ऐतिहासिक मोड़ पर विराम लेता
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