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________________ विस्तार वे लें, मैं केवल लिखता चला जाऊँ । और जब पृष्ठ-संख्या की सीमा सामने आ खड़ी हुई, तो मैंने कलम रख दी । और आदेश सुनाई पड़ा : 'चतुर्थ खण्ड लिखना होगा। 'जाते कहाँ हो ? अभी मैं तुम्हें नहीं छोडूंगा । कमी नहीं । आगे भी जो रचोगे, उसमें मुझे व्याप्त पाओगे। . .' तो तृतीय खण्ड आपके हाथ में है, और चतुर्थ के लिये आपको फिर धैर्य से प्रतीक्षा करनी होगी । समय और अवकाश महावीर का है, मेरा नहीं । आपके बेचैन इन्तजार की खवर मुझ तक पहुंची है, और मैं कम बेचैन नहीं हूँ, पूरा ग्रंथ आप तक पहुँचा देने के लिये । लेकिन महावीर अपना वक़्त ले रहे हैं, वे अपने समय से चलते हैं, उसमें मेरा क्या दखल । प्रसिद्ध साहित्य-चिन्तक रमेशचन्द्र शाह ने एक बार मुझ से एक मार्के की बात कही थी। बोले कि--'विराटत्व का जो विज़न जैनों के दृष्टा-कवियों ने प्रस्तुत किया है, वह अप्रतिम है।' इसका बोध मुझ में बालपन से ही था : और शायद मेरी स्वभावतः 'कॉस्मिक' चेतना के विकास में जैन तत्त्व-दर्शन, लोकशास्त्र और पुराकथा का भी पर्याप्त योगदान रहा हो। मेरी धारावत कालचेतना में भी शायद उसका प्रस्फुरण हो । ___उक्त विराटत्व का एकाग्र स्वरूप सव से ज्यादा जैनों के लोक-शास्त्र (कॉस्मोग्राफ़ी या कॉस्मोलॉजी) में सामने आता है। तीन अन्तिम वातवलयों से वेष्ठित, कमर पर हाथ धरे पुरुषाकार या डमरू के आकार वाले तीन लोक, उनसे परे अलोकाकाश का सत्ताहीन महाशून्य । लोक की मूर्धा पर मार से अतीत प्राग्भार पृथ्वी, सिद्धालय की वह अर्द्धचन्द्राकार सिद्धशिला, जहाँ मोक्षलाभ के बाद असंख्य अशरीरी सिद्ध बिराजते हैं । उसके नीचे क्रमशः अधिक उन्नीत कई अनुत्तर देवलोक, उनके नीचे कल्पवासी और भवनवासी देवों के सोलह स्वर्ग । उनमें भी सूक्ष्मतर होते ऐन्द्रिक भोग को विकास-श्रेणियाँ । ऐंद्रिक और अतीन्द्रिक चेतना के बीच के नाना रंगी मिश्र लोक । उनके नीचे डमरू-मध्य में विराट् गोलाकार मध्य-लोक । मानवों और तिर्यंच पशुओं का जगत । इसका अन्तिम मानुषोत्तर पर्वत, जिसके आगे मनुष्य की गति नहीं । इससे पूर्व मानुषोत्तर समुद्र, जिसके पार मनुष्य नहीं जा सकता । फिर कालोदधि, लवणोदधि जैसे महासमुद्रों से वेष्ठित असंख्यात् द्वीपसमुद्रों के बेशुमार मंडल । उनके पर्वतों, नदियों, नगरों, ऐश्वर्यो, तट-वेदियों के अत्यन्त काव्यात्मक नाम और वर्णन । और अन्तिम-मध्य में असंख्यात द्वीप-समुद्रों से वलयित, जम्बू वृक्षों की श्रेणियों से मण्डलित जम्बूद्वीप : जिसके केन्द्र में एक विराट् जम्बू वृक्ष । इस जम्बू द्वीप के मी केन्द्रीय भरत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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