________________
संयोजिका
शुरू में प्रतिज्ञा यह थी, कि 'अनुत्तर योगी' तीन खंडों में समापित हो । यह विभाजन स्वाभाविक था : प्रथम खंड में पूर्व भवान्तर कथा, और महावीर के कुमारकाल से, उनके महाभिनिष्क्रमण तक का वृत्तान्त । द्वितीय खंड में उनकी तपस्या : प्राकृतिक, मानवी, देवी, पाशवी, आसुरी शवितयों से उनका संघर्ष और अन्ततः कैवल्य की प्राप्ति । तृतीय खंड में श्री भगवान का तारनहार तीर्थ कर के रूप में लोक में पुनरागमन, धर्मचक्र प्रवर्तन : समकालीन लोक की प्रजाओं के पास जाना, उनसे सम्वाद, उनके प्रति अपना आत्म-निवेदन, शास्ता अर्हन्त द्वारा लोकमानस में क्रान्ति और अतिक्रान्ति का भूगर्भी विस्फोट ।
तृतीय खंड की सामग्री जब सामने आयी, तो देखा कि उसमें कथा के विपुल उपादान हैं, एक अमाप विस्तार का आयाम खुलता है, तीर्थंकर की परावाक् कंवल्य-ज्योति से ज्ञान और समाधान का अपार समुद्र उमड़ता दिखाई पड़ता है । मनस्तत्त्व की गहराइयों और ग्रंथियों का संकेत देने वाली कई सुन्दर कथाएँ हैं; ऐसी दन्तकथाएँ हैं, जिनमें काव्य का अपूर्व सौन्दर्य, और रस है। एक अनोखा सूक्ष्म भावलोक खुलता है । ऐसे पात्र हैं, जिनके माध्यम से अस्तित्त्वगत संत्रास, और जीवन-जगत पर उठने वाले अन्तिम और प्रासंगिक प्रश्नों को एक अत्यन्त आधुनिक और मनोवैज्ञानिक अभिव्यक्ति दी जा सकती है । निर्वाण की पूर्व सन्ध्या में महावीर की ऐसी भविष्य-वाणियाँ हैं, जिनमें एक सांकेतिक और सन्ध्या-भाषा द्वारा आज के पूरे युग पर रोशनी पड़ सकती है । मैं हैरान था, कि कैसे यह सारा-कुछ तृतीय खण्ड में सिमटेगा ?
मैंने सोचना और समयबद्ध योजना बनाना बन्द कर दिया । मैंने छोड़ दिया महावीर पर, कि जिस तरह चाहें वे प्रकट हों, अपना समय और
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org