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________________ ३४६ 'हे स्वामिन्, जो वस्तु सत्य हो, तथ्य हो, प्रत्यक्ष हो, सद्भूत हो, क्या उसके लिये भी जिनेश्वरों के मार्ग में प्रायश्चित्त करना होता है ? यदि मैं सत्य होऊँ तो हे महायतिन्, आपको प्रायश्चित्त करना होगा !' इस निर्भय निःशंक वाणी को सुन कर गौतम स्वयम् शंका में पड़ गये। वे बोले कुछ नहीं । सम्बोध का हाथ उठा कर तत्काल वहाँ से विहार कर गये । और सीधे श्रीभगवान के समीप आये । उन्होंने आनन्द गृहपति की स्थिति को यथावत् भगवान के समक्ष निवेदन किया। फिर पूछाः . 'हे त्रिकाल-विहारी परमात्मन्, क्या गृहस्थ को इतना दूरगामी अवधिज्ञान हो सकता है ? निर्णय करें, भन्ते, आनन्द का कथन सत्य है, या मेरा कथन सत्य है ? प्रायश्चित्त उसे करना होगा, या मुझे करना होगा?' प्रभु किंचित् मुस्कुरा आये । उत्तर सुनाई पड़ा : 'आनन्द का कथन सत्य है, देवानुप्रिय गौतम । प्रायश्चित्त तुम्हें करना होगा, सौम्य । जा कर श्रावकोत्तम आनन्द से क्षमा याचना करो। वे निश्चय ही 'चुल्ल -हिमवन्त वर्षधर पर्वत' से यहाँ तक दसों दिशाओं में जो जान और देख रहे हैं, वह यथार्थ है, वह सत्य है, वह तथ्य है, गौतम !' सहस्र-सहस्र श्रमण-संघ के शिरोमणि, पट्टगणधर भगवद्पाद इन्द्रभूति गौतम क्षमा, मार्दव और आर्जव से नम्रीभूत हो आये। उन्होंने प्रभु को वन्दन कर, उनके समक्ष मन ही मन क्षमायाचना की, प्रतिक्रमण किया । और वे तत्काल आनन्द गृहपति के निकट पहुंचे । गृहपति साष्टांग प्रणिपात में उनके श्रीचरणों में नमित हो गया। 'श्रावक-श्रेष्ठ आनन्द गृहपति जयवन्त हों, जयवन्त हों! स्वयम् केवली भगवन्त ने साक्षी दी है, तुम्हारा अवधिज्ञान सत्य है, तुम्हारा अनुभव प्रमाण है । मैं तुम से क्षमा याचना करता हूँ, मैं अपनी भूल के लिये प्रायश्चित्त करता हूँ, देवानुप्रिय !' शिवानन्दा और आनन्द को सम्यक् वात्सल्य की भाव-समाधि लग गई। उनकी मुंदी आँखों से आँसू ढरकते आये । 'आसन्न भव्य हो, देवानुप्रिय आनन्द । आप्त कामिनी हो, देवी शिवानन्दा। धर्मलाभ!' ...और जाने कब भगवद्पाद गौतम वहाँ से जा चुके थे। इसी परम्परा में, समय-समय पर आर्यावर्त के दस महाश्रेष्ठि और गाथापति क्रमशः श्रीभगवान के सर्वोपरि श्रावक और उपासक हुए। चम्पा नगरी का कामदेव, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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