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________________ नहीं हो । जानना ।' ३४५ कितना सुखद, विस्मयकारी और उन्नायक है - यह देखना, यह और अन्तर- मुहूर्त मात्र में ही शिवा और श्रेष्ठि यथास्थान, गहन सामायिक में लीन हो गये । अगले दिन सवेरे श्रेष्ठि भोजन से पूर्व अपने भवन-द्वार पर अतिथि के लिये द्वारापेक्षण कर रहे हैं । सहसा ही क्या देखते हैं, कि भगवद्द्वाद गौतम गोचरी करते उन्हीं की ओर आ रहे हैं । आनन्द हर्ष से अति सम्वेगित हो आये । पुलकित हो कर पड़गाहन किया : ... · तिष्ठ: तिष्ठः स्वामिन्, आहार-जल ग्रहण करें करें !' यथाविधि आहार ले कर गौतम स्वामी उद्यान के शिरीष कुंज में स्फटिक के सिंहासन पर बिराजे । शिवा और आनन्द श्रावक उनके श्रीचरणों में उपविष्ट हुए । मौन गहराता गया । अकम्प, अथाह तन्मयता व्याप गयी । हठात् बोल पड़े आनन्द श्रेष्ठि : आहार - जल ग्रहण 'अहा, अहा, यह मुझे क्या हो गया, भदन्त महाश्रमण ! मैं पूर्व, पश्चिम और दक्षिण दिशा में पाँच सौ योजन तक के 'लवण समुद्र' के क्षेत्र को यहीं बैठा प्रत्यक्ष देख और जान रहा हूँ । और उत्तर में 'चुल्ल - हिमवन्त वर्षधर पर्वत' तक के सारे क्षेत्र को देख और जान रहा हूँ। ऊपर सौधर्म स्वर्ग के ज्योतिरांग कल्प-वनों में यहीं बैठे विचरण कर रहा हूँ । नीचे रत्नप्रभा पृथ्वी के 'लोलुयच्युय नरक' तक के प्रदेशों को अभी और यहाँ प्रत्यक्ष देख और जान रहा हूँ । यह कैसा महाश्चर्य घटित हो रहा है, हे गुरु भगवन्त ?' 'तुझे अवधिज्ञान प्राप्त हुआ आनन्द, तू जयवन्त हो !' 'क्या घर में रह कर भी गृहस्थ की अवधिज्ञान हो सकता है, स्वामिन् ?' 'हो सकता है, देवानुप्रिय । लेकिन गृहस्थ को इतना दूरगामी अवधिज्ञान नहीं हो सकता । तू भूल में है, आनन्द, तू भ्रान्ति में पड़ गया है । प्रायश्चित कर, वत्स ! ' Jain Educationa International आनन्द को अपना अवधिज्ञान अत्यन्त प्रत्यक्ष था । वह अविकल्प प्रत्यायित था । उसमें अजस्र आत्म-श्रद्धा जाग उठी थी । वह निर्भीक अटल स्वर में बोला : For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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