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________________ ३४४ 'ओ प्रकृति, तुम दिगम्बरी हो। दिगम्बर तुम से अभिसार करने आया है। तुम निःसंग हो, असंग तुम्हें उत्संगित करने आया है । तुम सम्वित्-रूपा हो, प्रकृति, तुम अपने आप में निरामय और निर्मल हो । मनुष्य तुम्हें अपने राग से मलिन और व्यभिचरित कर देता है । वह तुम्हारे समय-सुन्दर रूप को क्षत-विक्षत कर देता है । अपने काम की हिंसा से, वह तुम्हारे नित्य-वसन्त यौवन को छिन्न-भिन्न कर देता है। अपने बन्धन से वह तुम्हें विसंग, विरूप और विसम्वादी बना देता है। 'नहीं तो ओ प्रकृति, ओ सत्ता, अपने द्रव्य में तुम भी उतनी ही शुद्ध, सुन्दर और शाश्वत हो, जितने कि अर्हन्त और सिद्ध शुद्ध, सुन्दर और शाश्वत हैं। 'ओ प्रकृति, तुम प्राणि मात्र की माँ हो, सचेतन मनुष्य की मां हो । अपनी असंग प्रीति से उसकी मूर्छा को भंग करो, और उसमें अपने शुद्ध सौन्दर्य और सम्वाद को संचरित करो। . . ' · · ·और आकाश के पलंग पर नदियों और वनों के चीर ओढ़ कर लेटी प्रकृति की शिरा-शिरा में जाने कैसा अपूर्व रसाप्लावन हुआ। एक अमोघ वीर्य के अन्तःसंचार से वह नव्य गर्भा हुई । विश्व के अन्तराल में सृजन की नई ऋचाएँ सरंगित होने लगीं। अचानक फिर भगवान वाणिज्य ग्राम में समवसरित हुए। · आनन्द गृहपति चैत्र की सुहानी सन्ध्या में, अपने 'शिव-रमणी' उद्यान के मर्मर सरोवर के तट पर सुख से आसीन हैं । सामने ही एक विद्रुम के भद्रासन पर शिवानन्दा बैठी है । दोनों के बीच कोई वचनालाप नहीं। दोनों परस्पर को दर्पणवत्, अन्तर केलि में लीन हैं। अचानक श्रेष्ठि उल्लसित हो कर बोले : 'शिवा, यह क्या हो गया मुझे ! मैं उद्यान में नहीं हूँ। प्रभु के समवसरण में हैं। क्या प्रभु अरण्यों से लौट आये ? वे सीधे यहाँ चले आये ? यहीं मुझे घेर कर प्रभ का समवसरण रच मया है . . 'और यह क्या हुआ शिवानन्दा, देश और काल की जाने कितनी दूरियां एक साथ मेरी आँखों में झलक मार रही हैं। जाने कहीं-कहीं के कितने ही तटों में एक साथ मेरे पोत लंगर डाल रहे हैं। जाने किन-किन द्वीपों और घरों के आलोकित कक्षों में बैठा हूँ । जाने कितने अनदेखे स्नेही एकाएक मिल गये हैं। • • और तुम, शिवा, तुम यहाँ भी हो, वहाँ भी हो। मैं यहाँ भी हूँ, वहाँ भी हूँ, तुम्हारे संग। और में कहीं नहीं हूँ, मैं किसी के संग नहीं हूं। तुम हो तो मैं नहीं हूँ। मैं हूँ तो तुम Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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