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________________ ३४२ · · · आकाश का सूर्य पानी भरे घट में प्रतिबिम्बित हो रहा है। और जैसा आकाश में है, वैसा ही घट में है। जैसा वहाँ है, वैसा ही यहाँ है। जैसा यहाँ है, वैसा ही वहाँ है । लेकिन फिर वह तो यहाँ भी नहीं है, वहाँ भी नहीं है । वह तो जैसा है वैसा है, जहाँ है वहाँ है। · · · ऐसे ही मेरी यह आत्मा भी जहाँ की तहाँ, जैसी की तैसो, सदा स्वानुभव-गम्य है। ___... 'द्वैत में भी हूँ, अद्वैत में भी हूँ । जड़,जड़ में खेल रहा है। चेतन, चेतन में खेल रहा है । शाखाओं में लिपटे आकाश की तरह ये दोनों तत्त्व, एक-दूसरे से युक्त और वियुक्त एक साथ हैं । इन्द्रियाँ अपने रस में डूबी हैं । प्राण अपने में तन्मय है । मन अपने में गतिमय है। चेतन अपने में रम्माण है । अतिचेतन आत्मा अपने में अचल है । सब एक दूसरे को जान रहे हैं, और सम्वाद में जी रहे हैं । किसी को किसी से विरोध नहीं । लेकिन परस्पर में हस्तक्षेप नहीं । एक अविरोध संगति में वे तन्मय हैं । यह जो सर्व में तन्मय है, वही चिन्मय है । दीपक की निष्कम्प लौ से, सारे कक्ष को भोग-माया आलोकित और उज्ज्वल है। . . .' आनन्द श्रेष्ठि के कर्म में अब कामना नहीं रह गयी है। इसी से उनके कर्म का सुकौशल बढ़ता जा रहा है। कर्म करते हुए भी, वे अकर्म हैं। प्रवृत्ति करते हुए भी, निवृत्त हैं । इसी से व्यापार-व्यवहार सब उनके लिये योग हो गया है। उस में एक अपूर्ण ऊर्जा, गति और सुरावट आ गयी है । आनन्द गृहपति का अर्जन सौ गुना बढ़ गया है । ऐसा व्यापारिक कौशल तो पहले कभी प्रकट न हुआ। इसलिये कि यह अर्जन अब अपने लिये नहीं रह गया है, सर्व के लाभ को समर्पित हो गया है । उन्होंने अपनी तमाम अचल, चल और वर्द्धमान सम्पत्ति मन ही मन महावीर को अपित कर दी है । आसपास के सन्निवेशों के प्रतिनिधियों का एक न्यास उस सम्पत्ति का लेखा-जोखा, व्यवस्था और वितरण करता है । वह सारा द्रव्य आस-पास के जनपद में, जन-जन में वितरित हो जाता है । और बदले में जन, महाजन के अर्जन-पराक्रम में बेशर्त सहयोगी हो गये हैं। फलतः बिन माँगे ही सब को पर्याप्त धन-धान्य मिलता चला जाता है । कोई अनुबन्ध नहीं, कोई मालिकसेवक नहीं । एक ही लोक-सम्पदा के सब सहकर्मी और सहभोगी हैं । वैशाली के इस प्रदेश में. जीवन का एक अनोखा समवादी और सम्वादी रूप चुपचाप प्रकट हों रहा है। . . . __ और श्रेष्ठी को लगता है, कि वे कुछ कर नहीं रहे, सब अपने आप हो रहा है। करते हुए भी कुछ नहीं कर रहे हैं । कुछ न करते हुए भी अविराम कर रहे हैं । अपनी समृद्धि बढ़ाने का कोई उद्वेग उनके मन में अब नहीं है । मुनाफ़े और Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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