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पर गति ज्ञान में हो, यही सही स्थिति है, और वही सामायिक है । इसी से जीवन का हर पल सामायिक हो जाना चाहिये , आनन्द ।'
'वह कैसे करूँ, भगवन् ?'
‘अनुक्षण स्व-समय में संचेतन रह कर ही, जीवन-जगत के सारे व्यवहार कर। सारे कर्म और भोग व्यापार में, अपने ध्रुव पर निश्चल रह कर, सहज भावेन सब कुछ कर, सब कुछ भोग । अपने प्रत्येक कर्म और भोग को, अकर्म और अभुक्त रह कर, देख और जान । अपने सम्भोग की राई-रत्ती हर भाव-भंगिमा, क्रिया, प्रक्रिया को सूक्ष्मातिसूक्ष्म देखता ही जा, जानता ही जा, और भी जानता ही जा । इतना कि, तुझ से बाहर किसी पर में तेरी कोई क्रिया रह ही नहीं जाये। · · · सामायिक, सामायिक, जीवन का प्रत्येक क्षण सामायिक । हर क्रिया, हर भोग, हर चेष्टा, हर सर्जन, कला, पराक्रम सामायिक । यही जीवन्मुक्ति है- अभी और यहाँ । यही परा कला है, यही परम सुख और सौन्दर्य में शाश्वत जीवन-धारण है । . . .'
.. आनन्द की आँखों में जैसे अवबोधन और दर्शन की एक नयी ऊषा उदय हो आयी। उसे लगा कि सब-कुछ एक सहज सौन्दर्य से अभिषिक्त और प्रफल्लित हो उठा है । उसकी उन्मनी चितवन के उन्मीलन में नित नये सौन्दर्य की एक अविरल नदी बह रही है।
और अचानक ही शिवानन्दा किसी अपूर्व आनन्द के नशे में झमती हई, भगवान के सामने आयी। जैसे समुद्र-मन्थन में से आविर्मान लक्ष्मी हो । और वह अपने वक्षोज के कुम्भ से दिव्य मदिरा बहाती आ रही है।
श्रीभगवान के चरण-प्रान्तर में लोट कर वह मादिनी देहातीत सुख में वेभानसी हो गयी।
श्रीभगवान बोले :
'देखो आनन्द, शिवानन्दा सामायिक के परम सौन्दर्य और सम्भोग में लीन हो गयी है। हो सके तो इस शिवानी के साथ तन्मय हो जाओ। और जानो, कि भोग में ही योग कैसे सम्भव है।'
_ और आनन्द गृहपति, विपल मात्र में, अपने स्व-समय के कक्ष में प्रवेश कर, चिद्केलि में मूच्छित हो गया।
आनन्द गृहपति के जीवन की धारा ही बदल गयी है। वह और का और हो गया है। कभी-कभी हठात् अन्तस्तल निष्कम्प हो जाता है । और उसमें से बोध के नये-नये आयाम स्फुरित होते रहते हैं :
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