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________________ ३४० 'और सुन आनन्द, घट के भीतर, बाहर तथा मध्य में आकाश है, तो वह घट को त्यागे भी कैसे, और ग्रहण भी कैसे करे ? उसी तरह इस जगत-संसार के अन्दर-बाहर और मध्य में जो स्व-सम्यक् ज्ञानी आत्मा है, वह क्या त्यागे और क्या ग्रहण करे? दर्पण-कक्ष में हो रही रति-क्रीड़ा, वहाँ के दर्पण-दर्पण में अनगिन हो कर एक साथ हो रही है । पर फिर भी वह दर्पण में कहीं नहीं हो रही। केवली के ज्ञान में अनन्त देश-काल की सारी मोह-बन्ध लीलाएँ एक साथ झलक रही हैं । वे ज्ञान में लीन हो जाती हैं, ज्ञान उनमें लीन नहीं होता । .. 'इसी परा कला में भोग, आनन्द, तो भोग कर भी अधिक-अधिक मुक्ति के सुख का आस्वादन करता जायेगा। भोग की चरम तल्लीनता में ही, परम योग के द्वार अचानक खुल जायेंगे। तेरे लिये, एक दिन !' 'उस परा कला को कैसे उपलब्ध होऊँ, भगवन् ?' 'स्व-समय के ध्रुव में अचल रह कर, पर-समय में ज्ञान-पूर्वक अभिसार कर । यही वज्रोली है । वज्रोली का सिद्धयोगी सदा ऊर्ध्व-रेतस् रहता है। भोगते हुए भी, उसका वीर्य नीचे की ओर नहीं जाता, बिन्दुपात नहीं होता। भोग के क्षण में भी, उसका बिन्दु ऊपर हो जाता है। उसकी हर ऊर्जा, वासना और क्रिया ऊर्ध्वस्थ ज्ञान-सूर्य से प्रवाहित होती है, और सर्व में सम्भोग करती हुई भी, उसी ऊर्ध्व के चिदाकाश में गतिमान रहती है। अपने सूर्य से स्खलित हो कर, वह जड़ माटी में नहीं मिलती। इसी कारण सच्चा भोक्ता, ऊर्ध्व-रेता अस्खलित-बिन्दु योगी ही हो सकता है । बिन्दुपात होने पर तो भोग-सुख की धारा खण्डित हो जाती है। अनंगजयी अर्हत् ही सर्वोपरि भोक्ता है, आनन्द ।' ‘पर वह सुख कैसे लभ्य है, भगवन्, किस विधि से ?' 'सामायिक द्वारा ! लेकिन सामायिक विधि नहीं, स्वभाव है।' 'तो प्रोषधशाला में रह कर सामायिक की साधना करनी होगी, भगवन् ।' 'सामायिक समयगत और स्थानगत क्रिया नहीं । एक ख़ास समय और स्थान पर होने वाला सामायिक, जीवन से अलग पड़ जाता है। जीवन से जुड़ कर उसमें प्रवाहित नहीं होता । तब साधक सामायिक के समय तो किंचित् स्वसमय (आत्मा) में ठहरता है। पर उसके बाद सारे समय वह प्रमत्त हो कर, पर समय में, पर पदार्थ और पर व्यक्ति में खोया रहता है। इसी से जीवन के हर क्षण में, हर कर्म में सामायिक की स्थिति बनी रहनी चाहिये। क्यों कि जो समय अर्थात् सम्-अय् है, वह स्थिति और गति, ज्ञान और अभियान एक साथ है । इसी से वह गति करते हुए भी स्थिर और ज्ञानी रहता है। उसमें गति का निषेध नहीं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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