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स्थान भी नहीं । उसका कोई जीवस्थान भी नहीं, गुणस्थान भी नहीं । क्यों कि ये सब अपने से पर पदार्थ पुद्गल द्रव्य के परिणाम हैं । स्व-समय में नित्य सुन्दरी, उस आत्मा को किसी स्थान या स्थिति में चीन्हा नहीं जा सकता। अपने में विरम जाने पर, वह परम प्रिया न जाने किस अलक्ष्य अथाह में से उठ कर, सहसा ही हमें अपने उत्संग में ले कर, अनाहत रमण में लीन कर लेती है।...' .. सुन कर सकल श्रोतागण के अंग-अंग किसी अपूर्व रति-सुख से विभोर हो। आये । आनन्द को लगा, कि शिवानन्दा तो भीतर ही बैठी है । वह त्याग और भोग से परे अनन्या है। उसकी ओर उसने देखा, तो पाया कि सौन्दर्य का ऐसा चेहरा तो पहली बार देखा उसने ! प्रथम रात्रि में भी आज जैसो अनूढ़ा और नवोढ़ा वह नहीं लगी थी। • •
सहसा ही आनन्द गृहपति पूछने को विवश हुआ :
'भगवन्, अभी तो मेरा भोगानुबन्ध अछोर है। भोग से भाग कर जाऊंगा कहाँ ? इसी से तो त्याग द्वारा भोग को परिमित करने आया था, जिससे कि ऊब से उबरूँ, और अपने में कुछ ठहर सकूँ ।'
'भोग से भाग कर कोई कहाँ जायेगा? वह धोखा है, आत्म-वंचना है, भ्रान्ति है, क्षणिक पलायन मात्र है। भोग-वासना को तोड़ा नहीं जा सकता, उसे केवल भीतर मोड़ा जा सकता है। उसे केवल पर-सम्भोग की भ्रान्ति से निकाल कर, आत्मसम्भोग में संन्यस्त किया जा सकता है । क्यों कि वहीं भोग पूर्ण, सार्थक, सन्तृप्त
और शाश्वत हो सकता है। वही उसका गन्तव्य है ।' ____ 'उसके लिये क्या मुझे सर्वत्यागी श्रमण होना पड़ेगा, भन्ते ? क्या गार्हस्थ में रह कर वह सम्भव नहीं ?' _ 'आत्माराम में रमने को स्थान और स्थिति बदलने की ज़रूरत नहीं । श्रावक अपने सम्यक्-ज्ञान से आत्म-ध्यान के ऐसे शिखर तक भी पहुंच सकता है, जहाँ पहुंचने में एक अज्ञानी श्रमण को कई जन्म लग सकते हैं । कोटि जन्म तप तपने पर अज्ञानी के जितने कर्म झड़ते हैं, ज्ञानी के उतने कर्म एक छिन में कट सकते हैं। तेरे भोगानुबन्ध अभी शेष हैं, उन्हें निश्चिन्त और निर्विकल्प हो कर भोग। केवल यह जान कि तू वही नहीं है । बँधना और बाँधना तेरा स्वभाव नहीं है । ऐसे भोग, जैसे जल में डूबी गागर । उसके भीतर-बाहर जल ही जल है, पर गागर में भर कर भी वह उसमें बंधा नहीं है । ऐसे भोग, कि जैसे घट के भीतर और बाहर आकाश ही आकाश है, आकाश घट में बँधा नहीं, और घट को आकाश बाँधता नहीं।
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