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आत्मा अपने-अपने स्वरूप में अनन्य और विलक्षण है। उसकी अपनी एक इयत्ता है, जो अन्य से सर्वथा भिन्न है। वही उसका सौदर्य है। वही एकत्वनिश्चयगत समय अर्थात् आत्मा लोक में सर्वत्र सुन्दर है। ऐसी अनन्य स्वभावी आत्माएँ जब अपने स्वत्व से च्युत हो कर, परस्पर एक-दूसरे को बाँधती हैं, तो वह बन्धन विसम्वाद पैदा करता है। वह समय के सौन्दर्य को नष्ट कर देता है । सौदर्य सम्वाद है, विसम्वाद नहीं, आनन्द !
_ 'जहाँ सम्वाद है, वहीं सौन्दर्य है। जहाँ सौन्दर्य है, वहीं निरन्तर नाविन्य है। जहां निरन्तर नाविन्य है, वहाँ ऊब नहीं, उपरामता नहीं, विरक्ति नहीं, ग्लानि नहीं, क्लान्ति नहीं। वहीं नित्य भोग, अविरल सुख, अचल शान्ति सम्भव है। ___ 'हम सब अपने स्व-समय में अस्खलित जियें। एक-दूसरे को अधिकतर जानें, पर एक-दूसरे में आसंगित न हों। स्व-समय से निकल कर जब हम पर-समय में जीते हैं, तो वह सम्बन्ध राग-द्वेष का होता है। परस्पर के आसंग में नहीं, ज्ञान में जीना ही सम्वाद में जीना है। परस्पर के आसंग में जीना, विसम्वाद में जीना है । जहाँ सम्वाद है, वहीं सौदर्य है। वहीं परस्पर हम द्वैत भी हैं, अद्वैत भी हैं । संयुक्त भी हैं, स्वयुक्त भी हैं।
___ 'तू वस्तु और व्यक्ति मात्र के साथ ज्ञान में जी, आनन्द, तो सम्वाद में जियेगा। तो सौन्दर्य में जियेगा । तो नित नव्य में जियेगा । तो बिना ऊबे ही नित्य-भोग का सुख पा सकेगा। तब रति के बाद की विरति, तू नहीं जानेगा। भोग के बाद का अवसाद तुझे अनजाना हो जायेगा ।..'
आनन्द को उस सौन्दर्य और भोग की प्रतीति-सी होने लगी। क्षण मात्र में ही वह एक भारी हलचल और विप्लव से गुज़रा । जाने कितना कुछ आदि पुरातन टूटा, ऊब और उदासी की जाने कितनी पत्ते लहरों की तरह हटती गईं।
और किसी भीतरी अविचलता की धुरी का उसे अहसास होने लगा । वह हर्षित हो कर और भी जानने को उत्कंठित हो आया ।
_ 'लोक में सर्वत्र सुन्दर उस समय में कैसे अवस्थित हआ जा सकता है, भगवन् ? अपने ही भीतर वह भगवती आत्मा बिराजित है, पर वहाँ कैसे पहुँचूं ? कहाँ चीन्हूँ उस स्थान को । मैं तो अपार बन्धनों में पड़ा हूँ । इस जंगल में उस उन्मुक्ता को कहाँ खोजूं, कैसे खोजूं?" _ 'नहीं आनन्द, वह आत्मा की सुन्दरी स्थान-परिबद्ध नहीं । वह बन्धन और मुक्ति दोनों से परे, निरपेक्ष और स्वतन्त्र है । उस परम प्रिया आत्मा का कोई योगस्थान नहीं, बन्धस्थान भी नहीं। उसका कोई रमण स्थान भी नहीं। कोई संक्लेशस्थान भी नहीं। विशुद्धि-स्थान भी नहीं। उसका कोई संयम-नियम-लब्धि
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