________________
३३६
'अतिथि संविभाग व्रत ? लोक की वस्तु सम्पदा मात्र अविभक्त रूप से सर्व की है, सम्पूर्ण । उस में ख़ानें और ख़ज़ाने बना कर, औरों से उसे बँटाने का दम्भ करते हो ? सर्व के माल के मालिक बन कर दूसरों की हिस्सेदारी उसमें रखने का अहसान करना चाहते हो ?
'हर व्रत आत्म- प्रवंचना हो कर रह गया है, आनन्द ? इस भ्रम में कब तक जियोगे ?'
'तो मैं सारे व्रतों को त्याग देता हूँ, प्रभु ?'
'त्याग भी नहीं, ग्रहण भी नहीं । व्रत भी नहीं, अव्रत भी नहीं । विरत रहो, संवृत रहो । अपने में सम्वरित हो रहो । और अपने ही भीतर की सम्भावना में से जो सम्मुख आये, उसमें अनायास रमते रहो । रमण भी नहीं, विरमण भी नहीं, केवल सम्वरण । भोग भी नहीं त्याग भी नहीं । निखिल में नित्य संभोग । अपने ही में अविरल मैथुन । उसमें हर काम्य सहज भोग्य है, अनचाहे आत्मवत् सुलभ है । भुक्ति और मुक्ति वहाँ तदाकार है '
1
सुनते-सुनते आनन्द अनायास सम्बोध की शान्ति में उतरता आया । उस पर बहुत सुखद योग- तन्द्रा सी छाने लगी । उसे फिर सुनाई पड़ा :
'सच्चा व्रती वह, जो भीतर में सहज ही विरत हो । अन्यथा तो बाहरी व्रत मात्र विकल्प है, आनन्द | विकल्प के रहते तो कोई तन्मय ऐंद्रिक भोग भी शक्य नहीं । तो विकल्प में रह कर परम आत्म-सम्भोग कैसे सम्भव है ? तथाकथित व्रती का चित्त हर समय व्रत के जंजाल में लगा रहता है । साध्य आत्मा अलक्ष्य हो रहती है । साधन ही प्रधान हो जाता है । व्रत में अहंतुष्टि ही सर्वोपरि हो उठती है । अहंजन्य विकल्पों के उस जंगल में आत्मा तो जाने कहाँ खो रहती है । लेकिन व्रती इस झूठे सन्तोष में जीता है, कि वह आत्मलाभ और मोक्ष की साधना कर रहा है ।
'जानो आनन्द, व्रत के फलस्वरूप जन्मान्तर में क्षणिक भोग मिल सकता है, शाश्वत मोक्ष नहीं । अनाहत सुख नहीं । इस झूठी तुष्टि और खण्डित सुख में ही जीना चाहता है, आनन्द ?'
'ऐहिक सुख को तो चरम तक भोग लिया, प्रभु । उससे अब मैं ऊब गया हूँ । अखण्ड सुख के लिये आत्मा तरसती है ।'
'जानता हूँ, तू नित्य भोग चाहता है । तुझ में संवेग जागा है । तू आत्मार्थी है, तू मोक्षार्थी है, देवानुप्रिय ! '
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org