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'और यह शिवानन्दा एक नहीं, अनन्त रमणी है। इसे भोगने की तुझ में सामर्थ्य कहाँ ? इसी से तो हिचक है, पाप का भय है, अब्रह्म की ग्लानि है । अपराध-भाव है । मर्यादा बाँध कर इस भय से बचना चाहता है ! ब्रह्मभोग में रह, तो अनन्त शिवानन्दा में अनायास रमण करेगा। शिवानन्दा, पर नारी, कुमारी, विधवा--क्या अन्तर पड़ता है ? हर त्याग भोगासक्ति का ही एक पर्याय है । हर भोग में केवल अपने ही को भोग, तो सहज ब्रह्मचारी हो रहेगा । तब भोग होगा ही नहीं, केवल योग होगा। ___'दिग्वत ? वस्तु दिगम्बर है । आत्मा दिगम्बर है । समय दिगम्बर है । उस दिगम्बर को दिक् और काल में बाँधना चाहता है ?
'भोगोपभोग परिमाण व्रत ? तू ही भोक्ता, तू ही भोग्य, फिर परिमाण कौन किस का करे ?
'अनर्थदण्ड-त्याग व्रत ? त्राता क्षत्रिय तलवार से काट कर के भी काटता नहीं। तेने क्षत्रिय हो कर तलवार त्याग दी ! लेकिन अनगिनती हर दिन कटते हैं, कि तू और यह शिवानन्दा अलभ्य रत्नों को धारण कर आये हो । और हल तू न चलायेगा, लेकिन खेत तेरे रहेंगे, और खलिहान तेरे भरेंगे । यह व्रत है या आत्म-वंचना ?
'सामायिक व्रत ? रजो-घटिका सामने रख कर, उतना समय बिताने का संकल्प, उसके बाद उठ खड़े होने का विकल्प ? समय-सूचक घड़ी पर टंगा समयसार आत्मा ? जानो आनन्द, समय-सीमा में आत्म-चिन्तन् सामायिक नहीं। हर क्षण, सब कर्म करते हुए, समयातीत स्व-समय में जीना, वही सामायिक है। काल के अभिग्रह में बन्द हो कर, कालातीत में रमण कैसे हो सकता है ?
'देशावकाशिक व्रत ? भीतर के असीम अवकाश में जो सदा यात्रा कर रहा है, वह बाहर के अवकाश में सीमा बाँध कर विचरने के झंझट या विकल्प में क्यों पड़े?
'प्रोषधोपवास व्रत ? एक तिथि या पर्व पर उपवास, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान जो करने बैठा, वह अन्य दिन स्वच्छन्द विचरने की छूट ले रहा है । उपवास है अत्म-सहवास । अन्न-त्याग मात्र से आत्म-सहवास नहीं होता, प्रमाद होता है, उबासियां आती हैं । उसमें देह-दमन का आग्रह है, आत्म-रमण और आत्माराम नहीं ।
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