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________________ 'तेरे मन से व्रत का मोह गया नहीं, आनन्द ? व्रत की नाव में सुरक्षित बैठ कर, अनन्त भव-समुद्र तरना चाहता है ? सो तो सारे जहाज़ी बेड़े त्याग कर, निजी यात्रा के लिये रत्नपोत रक्खें ही हैं तूने !' 'वह भी त्यागता हूँ, प्रभु ।' 'तू नहीं जानता आयुष्यमान्, कि अपने हर त्याग में तू कुछ बचा कर रख रहा है । मैं सारे तट और सारी नावें छीन लेने आया हूँ । कहाँ तक त्याग करेगा ? तेरा कुछ छोड़ा ही नहीं मैंने । सब छीन लिया।' 'मेरा त्याग सार्थक हो गया, भन्ते !' 'तेरा त्याग व्यर्थ हो गया, आयुष्यमान् !' 'सो कैसे, भन्ते ?' 'अहिंसा अणुव्रत ? अहिंसा स्वभाव है । वह व्रत की सीमा में कैसे आ सकती है ? अहिंसा क्या मारने और न मारने में है ? मारना और न मारना दोनों ही, तेरे स्वायत्त अधिकार में नहीं । अहिंसा दया नहीं । औरों पर दया करने वाला तू कौन होता है ? करोड़ों मनुष्यों की हिंसा पर टिकी बारह कोटि हिरण्य की सम्पत्ति रख कर, अहिंसा का व्रती होने आया है ? 'सत्य अणुव्रत ? सत्य का व्रती हो कर, सब से बड़ा झूठ बोल रहा है, कि जो सत्य में तेरा है ही नहीं, उसके त्याग की बात रहा है ! _ 'अचौर्य अणुवत ? सारे लोक का धन चुरा कर, अचौर्य का व्रतो होने आया है ? _ 'अपरिग्रह अणुव्रत ? श्रेष्ठ भोग्य को अपने लिये बचा कर, शेष का त्याग ? जो बचा कर रक्खा है, वह क्या तेरा है ? भोग कर भी भुक्त न हो सका, फिर भी भोग-वासना का अन्त नहीं ! यह मूर्छा जब तक बनी है, तब तक अपरिग्रह कहाँ ? राजर्षि भरत चक्रवर्ती सर्वभोगी हो कर भी अनायास सर्वत्यागी था । इसी से उसे त्याग और परिमाण की जरूरत न पड़ो। रमणी के अवगाढ़ उत्संग में भी वह आत्मलीन रहा । ____ 'ब्रह्मचर्य अणुव्रत ? भरत राजर्षि बहुप्रिया-रमण था । अमर्याद रमण । पर उसने रमणी में रमण किया ही नहीं । अपने ही में रम्माण रहा । फिर एक रमणी भोगे, कि असंख्य भोगे, क्या अन्तर पड़ता है। भरत को याद ही न आया, कि कितनी रमणी भोग रहा है । पर को उसने भोगा ही नहीं, तो त्याग किसका करता? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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