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________________ पूर्वाह्न की धर्म - पर्षदा में आनन्द गृहपति वीरान और अकेला छूट गया था । भीतर ठहराव नहीं है, बाहर खड़े रहने की जगह नहीं । महावीर की छुरी ने सारे जुड़ाव काट दिये, अब तक के सारे टिकाव तोड़ दिये । सारी बैसाखियाँ छीन लीं । और सहारा भी न दिया । अपनाया नहीं, नितान्त अकेला कर दिया । 1 अब वह क्या करे ? कहाँ जाये ? पार्श्व भी हाथ से निकल गये । और महावीर पहोंच से बाहर हैं। व्रत, नियम, आचार, प्रतिबन्ध नहीं ! धर्म की कोई मार्ग- रेखा नहीं ? तो वह कहाँ चले ? किस पर चले ? किस ओर चले ? क्या कल्की अवतार होने को है ? और वह अपराह्न की धर्म-सभा में फिर भगवान के सम्मुख उपस्थित हुआ। पूछने को बचा ही क्या है । यह शास्ता तो प्रश्न को उठने से पहले ही , #• मैं • और अचानक सुनाई पड़ा : काट देता है । मैं 1 'यह मैं कि नहीं ?' मैं मैं कौन है ? वही तू है, वही चरम सत्य है । तू है 'हूँ, भगवन् !' 'उसी को पकड़ ले, और उसी में रह, उसी में चल, उसी ओर चल !' 'लेकिन चलने को कोई लीक तो चाहिये, प्रभु । कोई लकीर दें प्रभु, कि उस पर चलूं ।' Jain Educationa International 'जो प्राप्त है, उसे ही पाना चाहता है ? आकाश में लकीर खींचना चाहता है ? पानी पर चित्र आँकना चाहता है ? बेलीक को लीक में बाँधना चाहता है, आयुष्यमान् ? ' 'लेकिन आकाश और पानी पर चलने को कोई यान तो चाहिये न, प्रभु ?' For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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