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विज्ञापन बना कर रखते हैं यह असत् और विभाव की व्यवस्था है, गृहपति आनन्द, जिसमें सदी-दर-सदी धनिक अधिक धनिक होता जाता है। गरीब अधिक ग़रीब होता जाता है। ब्रहज्ञानी याज्ञवल्क्य तक को इन्होंने सम्मान का आसन दे कर, अपना भृत्य और याचक बनाये रखने का षडयंत्र रचा। शताब्दियों के आर-पार व्याप्त इस धोखे और अन्धकार के चक्रव्यूह का भेदन करने आया है, तीर्थंकर महावीर · · · !'
और अचानक भगवान चुप हो गये । सारे वातावरण में लपटें उठती-सी अनुभव हुईं। आनन्द गृहपति बिलबिला कर रो आया। प्रभु के एक-एक शब्द से मानो उसके जन्मान्तर व्यापी कंचुक एक के बाद एक उतरते चले गये। उसने स्वयम् अपनी ही काया की उतरती त्वचाओं में इतिहास को नंगा होते देखा । उसने रक्त के आँसू रोते हुए पूछना चाहा :
मैं कौन हूँ, प्रभु ? मेरा अस्तित्व यहाँ क्यों है ? मुझे क्या होना है, क्या पाना है ? मेरी नाड़ियाँ टूट गयीं : मैं बिखर गया : मुझे • • • मुझे • • • अपनी सत्ता में
लौटाओ, प्रभु ! • • •कि हठात् सहस्रों आँखों ने देखा : श्रीभगवान गन्धकुटी के दक्षिण द्वार की सीढ़ियाँ उतर रहे हैं । और औचक ही वे द्वार के बाद द्वार पार करते, दूर-दूर जाते दिखाई पड़े।
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