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________________ ३३२ विज्ञापन बना कर रखते हैं यह असत् और विभाव की व्यवस्था है, गृहपति आनन्द, जिसमें सदी-दर-सदी धनिक अधिक धनिक होता जाता है। गरीब अधिक ग़रीब होता जाता है। ब्रहज्ञानी याज्ञवल्क्य तक को इन्होंने सम्मान का आसन दे कर, अपना भृत्य और याचक बनाये रखने का षडयंत्र रचा। शताब्दियों के आर-पार व्याप्त इस धोखे और अन्धकार के चक्रव्यूह का भेदन करने आया है, तीर्थंकर महावीर · · · !' और अचानक भगवान चुप हो गये । सारे वातावरण में लपटें उठती-सी अनुभव हुईं। आनन्द गृहपति बिलबिला कर रो आया। प्रभु के एक-एक शब्द से मानो उसके जन्मान्तर व्यापी कंचुक एक के बाद एक उतरते चले गये। उसने स्वयम् अपनी ही काया की उतरती त्वचाओं में इतिहास को नंगा होते देखा । उसने रक्त के आँसू रोते हुए पूछना चाहा : मैं कौन हूँ, प्रभु ? मेरा अस्तित्व यहाँ क्यों है ? मुझे क्या होना है, क्या पाना है ? मेरी नाड़ियाँ टूट गयीं : मैं बिखर गया : मुझे • • • मुझे • • • अपनी सत्ता में लौटाओ, प्रभु ! • • •कि हठात् सहस्रों आँखों ने देखा : श्रीभगवान गन्धकुटी के दक्षिण द्वार की सीढ़ियाँ उतर रहे हैं । और औचक ही वे द्वार के बाद द्वार पार करते, दूर-दूर जाते दिखाई पड़े। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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