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_ 'प्रभु की इस खरधार वाणी ने, आनन्द गृहपति की जड़ों में बद्धमूल उसके सारे संस्कारों का ध्वंस कर दिया । वह क्षत-विक्षत होकर अपनी स्थिति का संरक्षण खोजने लगा। उसने तड़प कर पूछा : __ 'क्षमा करें, भन्ते क्षमा-श्रमण, आप श्रावक श्रेष्ठियों के प्रति इतने कठोर क्यों हैं ?'
___'इसलिये कि पानी तक छान कर पीने वाले ये दया के पालक श्रावकश्रेष्ठी, आदमी के लहू का मूल्य पानी से भी कम आँकते हैं ! मनुष्य का सर्वस्व छीन कर भी, वे दया के अवतार बने रहते हैं । अपनी एक-एक दमड़ी के बदले, आदमी की चमड़ी पर्त्त-दर-पर्त उतार सकते हैं। उसकी एक-एक रक्त बूंद से, अपनी एक-एक कौड़ी वसूल कर लेते हैं। फिर भी इनकी मृदुता और मिठास का जवाब नहीं । ... इनका षड्यन्त्र आदिकाल से आज तक इतिहास में अखण्ड रूप से अन्तर्व्याप्त है । करोड़ों-अरबों मानवों की अनगिनती पीढ़ियों को, कर्म-विधान की ओट में अज्ञानी और असंस्कृत रख कर, अपने चालाक शोषण से ये उन्हें चिरकाल दीन-दरिद्र और पराधीन बनाये रखते हैं । और यों अपनी सम्पत्ति और आभिजात्य की जड़ परम्पराओं को अटूट और अक्षुण्ण रखते हैं । ... ज्ञातृपुत्र क्षत्रिय हो कर भी, तुम ब्याज-उपजाऊ वणिक हो कर रह गये आनन्द ! महाजनी सभ्यता के इस सर्वग्रासी अभिशाप को खुली आँखों देखो, आनन्द । ये सारी मनुष्य की जाति को सौदागर बना देने पर तुले हैं । तुम स्वयम् इसके ज्वलन्त उदाहरण हो !' ___ 'इसी से तो सर्व के तारनहार प्रभु के श्रीचरणों में, अपने परिग्रहों, भोगों, सम्पदाओं का त्याग करने आया हूँ।' ___ 'सारे लोक से चुराई सम्पत्ति का त्याग और परिग्रह-परिमाण करने आये तुम मेरे पास ? जो मूल में ही तुम्हारा नहीं, जो औरों से छीना-झपटा हुआ है, उस तस्करी की सम्पत्ति पर अपने त्याग की मुद्रा आँकने आये तुम मेरे पास ? कितना हास्यास्पद, निराधार और प्रपंची है, यह तथाकथित त्यागतप, व्रत-आचार का सुविधाजीवी धर्म-मार्ग। यह परंपरागत रूढ श्रावकाचार, यह स्वार्थ में डूबे वणिक श्रेष्ठियों का मुलायम अहिंसा धर्म, और अपरिग्रहवाद का चालाक सिद्धान्त ! . . .
'जानो श्रेष्ठी, सुनो गौतम, ये वे लोग हैं जो सच्चे धर्मी, मर्मी, प्रेमी, कवि, कलाकार, ज्ञानी, तत्त्वदर्शी और पण्डित को भी अपने मनोरंजन और बद्धिविलास का साधन और सेवक मानते हैं । जो तीर्थंकर तक को अपने व्यवसाय का
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