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'लेकिन आज भी जिनेश्वरों का श्रावक और श्रमण धर्म उसी आधार पर तो टिका है, प्रभु !'
'धर्म भेदाभेद के इन प्रपंचों और पाखण्डों पर नहीं टिका है । वह विशिष्ट भव्यात्माओं की आन्तरिक ज्योति के प्रकाश पर टिका है । और उनके स्वतंत्र आत्मालोकन ने सिद्ध कर दिया है, कि बाह्य व्रत, आचार, नैतिक नियमविधान, विधि-निषेध से केवल पाखण्डों के सुदृढ़ दुर्ग खड़े हुए हैं । उनमें आत्मज्ञान की स्वतन्त्र धारा प्रवाहित न हो सकी है। धर्म के नाम पर इन सारे स्थापितस्वार्थी षड्यन्त्रों के चलते भी, सम्यक् दृष्टि और सम्यक्-ज्ञानी वही हो सके जिन्होंने इन सारी लीकों को तोड़ दिया । और अपनी अन्तरतम पुकार और पीड़ा का उत्तर खोजने को, जो विधि-निषेधहीन महा मुक्ति-पन्थ के यात्री हो गये।'
'तो फिर यह दया-दान, जप-तप, पूजा-पाठ, व्रत-आचार का धर्म-मार्ग क्या सर्वथा मिथ्या और निष्फल है, भन्ते महाप्रभु ?' ____ 'ये आत्मा के स्वभाव नहीं, विभावात्मक परिणाम हैं । ये सद्भूत आत्मा के असद्भूत विकल्प हैं। स्व-वस्तु के अभाव को भरने का यह भ्रामक अभिक्रम और उपक्रम है । यह झूठी आत्मतुष्टि का व्याज और बहाना है । यह छिद्रों को ढाँकने का सुन्दर आस्तरण है। खाली आदमी तप-त्याग, पूजा-पाठ, व्रत-आचरण का दिखावा करके औरों से असामान्य और बड़ा दीखना चाहता है । वर्ना तो मैंने तथाकथित धर्मियों के बीच, कलंकित व्यभिचारी को, सहज ब्रह्मचारी देखा और जाना है। मैंने मद्यप को अत्यन्त अप्रमत्त, निद्वंद्व और आत्मस्थ विचरते भी देखा है !'
सारी धर्म-पर्षदा इस विस्फोटक और खतरनाक वाणी को सुन कर सन्न रह गयी । गौतम ने फिर पृच्छा की :
तो भगवन, क्या मान लेना होगा कि आपके युग-तीर्थ में लोग स्वच्छन्दाचारी और स्वैर-विहारी होंगे ? क्या धर्म का कोई राजमार्ग न होगा ?'
-- 'मेरे युग-तीर्थ में लोग बाहरी प्रतिज्ञा से नहीं, आन्तरिक प्रज्ञा से चलेंगे। जानो गौतम, हर बाहरी प्रतिज्ञा टूटने को होती है। वह अन्ततः अधोगामी होती है । लेकिन प्रज्ञा आत्मोत्थ और आत्म-स्फूर्त होती है । सो वह अचूक
और ऊर्ध्वगामी होती है। मेरे युग-तीर्थ में लोग विज्ञानी और प्रबुद्ध हो कर, व्रत-आचार के सारे बाहरी साँचों, ढांचों और श्रृंखलाओं को तोड़ देंगे। उनके पाखण्डों और प्रपंचों का भण्डाफोड़ कर देंगे !'
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