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________________ ३२३ 'इस तरह मैं पाँच अणुव्रत और सात शिक्षा व्रत वाले प्रभु के श्रावक-धर्म को अंगीकार कर, जीवन पर्यन्त के लिये अर्हन्त महावीर का श्रमणोपासक होता हूँ, स्वामिन् ।' और आनन्द गृहपति ने अत्यन्त उत्कंठित और उत्साहित हो कर फिर प्रभु की उस सर्वदर्शी चितवन पर टकटकी लगा दी। वह पारदर्शी वीतराग चितवन उसके आरपार देखती रही । पर वे आँखें आनन्द की ओर न उठीं । प्रभु से उसे कोई प्रतिसाद या प्रत्युत्तर प्राप्त न हुआ । आनन्द हताहत, कुण्ठित, उदग्र देखता ही रह गया । सर से पैर तक काँप - काँप आया। उसके रोमों में काँटे उग आये । हाय, क्या सर्वत्राता सर्वज्ञ अर्हत् महावीर ने उसे न स्वीकारा ? शरण प्रदान न की ? उसकी अवज्ञा कर दी, उपेक्षा कर दी ? प्राणि मात्र के अकारण बन्धु और वल्लभ सुने जाते तीर्थंकर महावीर क्या इतने निर्मम और बेदर्द भी हो सकते हैं ? कि उन्होंने उसकी दारुण वेदना, समर्पण और उसके व्रत- ग्रहण की ऐसी घोर अवमानना कर दी ? और सिहरते थरथराते आनन्द गृहपति की आँखों से अविरल आँसू बहते आये । पर जैसे प्रभु ने उसके आँसुओं को भी अनदेखा कर दिया । इस अवज्ञा से पहले तो आनन्द बहुत निराश हुआ। लेकिन फिर अधिक स्वस्थ और दृढ़ होकर उसने सोचा कि भोग- परिभोग का जो त्याग उसने किया है, उसे उसने स्पष्ट निर्दिष्ट नहीं किया है, इसी से शायद प्रभु ने उसके व्रत और त्याग की अवज्ञा कर दी है। सो उसने उत्साहित हो कर उन भोग्य पदार्थों को नाम देकर कहा, जिनका त्याग करने को वह तत्पर हैं। उसने दृढ़ संकल्प के स्वर में अपनी प्रतिज्ञा को यों उच्चरित किया : 'लोकालोक के परम परमेश्वर प्रभु, सुनें । मैं शिवानन्दा के सिवाय अन्य स्त्री मात्र का यावत् जीवन के लिये त्याग करता हूँ । निधि में, ब्याज में तथा व्यापार में निवेशित बारह कोटि हिरण्य के अतिरिक्त, अन्य समस्त द्रव्य का त्याग करता हूँ । गायों के चार गोकुल सिवाय अन्य सारे गोकुलों का, पाँच सौ हल सिवाय अन्य सब हलों का, तथा सौ क्षेत्रों (खेतों ) उपरान्त, अन्य सब क्षेत्रों का सदा के लिये त्याग करता हूँ । प्रभु सुनें, प्रभु लक्ष्य करें । 'व्यापारिक माल - वहन के निमित्त पाँच सौ शकट ( गाड़ियों ) मात्र रख कर, अन्य तमाम शकटों का त्याग करता हूँ । निजी समुद्र यात्रा के लिये केवल चार रत्न जटित महापोत रख कर, अन्य सारे जगत-व्यापी अपने जहाज़ी बेड़ों का त्याग करता हूँ । स्वदेश के नदी-पथों और स्थल- पथों के अलावा, केवल सुवर्ण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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