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'एक निश्चित परिमाण में ही मैं सम्पत्ति और भोग-सामग्री रक्खूगा । शेष सारे धन, भोगोपभोग, वैभव, वस्तु-सम्पदा का स्वामित्व त्याग दूंगा । इस प्रकार मैं आज से परिग्रह-परिमाण अणुव्रत का व्रती हुआ, भगवन् · · ·!'
क्षण भर रुक कर आनन्द ने अर्हत् महावीर की ओर देखा, और प्रभु के प्रतिसाद की अपेक्षा की। लेकिन उसे कोई उत्तर या इंगित न मिला। प्रभु की इस उदासीनता से वह मर्माहत हो आया। फिर भी मन को जुड़ा कर उसने फिर निवेदन किया :
'मैं निम्न प्रकार से श्रावक के सात शिक्षाव्रत धारण करता हूँ, अन्तर्यामिन्ः
'मैं एक नियमित प्रतिज्ञा के अनुसार प्रति दिन ऊर्ध्व दिशा, अधो दिशा, तिर्यग् दिशा की सीमा का उल्लंघन न करूंगा। व्यापार, व्यवहार, संकल्पित कार्य के लिये निर्धारित क्षेत्र से बाहर न जाऊँगा। इस प्रकार मैं दिग्व्रत में दीक्षित हुआ, भगवन् ।
'मैं एक निर्धारित मर्यादा में ही भोजन, वसन, अलंकार, अंगराग, सुगन्धफुलल तथा अन्य भोग-सामग्री ग्रहण करूँगा। इस प्रकार मैं भोग-परिभोग-परिमाण व्रत का धारक हुआ, भगवन् । ___ 'मैं कामोत्तेजक कथा-वार्ता न करूंगा। भाँड़ की तरह शारीरिक कुचेष्टाएँ न करूँगा। मुशल, कुदाली, तलवार, शस्त्र-अस्त्र आदि अनर्थकर साधनों से संयुक्त न रहूँगा। यों मैं अनर्थदण्ड व्रत में परिबद्ध होता हूँ, प्रभु। ___ 'मैं प्रति दिन नियमित, एक निश्चित समयावधि तक, सामायिक ध्यान में बैठ कर मन, वचन, काय की हलन-चलन को रोकूँगा । चित्तवृत्तियों का निरोध करूँगा। भाव, भाषा और देह का दुष्ट प्रवृति में प्रयोग न करूँगा । यों मैं आज से सामायिक का व्रती हुआ, भन्ते भगवन् ।
_ 'अष्टमी, चतुर्दशी, अष्टान्हिका, पर्युषण आदि पवित्र तिथियों और धर्म-पर्वो पर मैं प्रोषधोपवास धारण करूँगा। सर्व प्रकार के अन्न-जल, भोग-परिभोग का त्याग कर, मौन और सामायिक पूर्वक काल यापन करूँगा। इस प्रकार मैं प्रोषधोपवास का व्रती हुआ, स्वामिन् । _ 'आज से प्रति दिन मैं भोजन से पूर्व अतिथि के लिये द्वारापेक्षण करूंगा। और किसी तपस्वी, साध, परदेशी, भोजनापेक्षी सुपात्र अतिथि को आहारदान दे कर ही भोजन ग्रहण करूँगा । अपना भोजन अन्य के साथ बाँट कर ही मैं आहार करूंगा। इस तरह मैं चिरकाल के लिये अतिथि-संविभाग का व्रती हुआ, भगवन् ।
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