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रोहिणी की तरह जुड़ी हुई है । वह उसकी बहुत मनभायी मनचाही है। जहाँ वह परमा सुन्दरी रूपसी है, वहीं दूसरी ओर स्वभाव से अत्यन्त मृदु, मधुर और स्नेहवती है। उसकी प्रतिनिष्ठा लोकमें अप्रतिम मानी जाती है। उसके स्नेह, समर्पण और सेवा से आनन्द के जीवन में सदा-वसन्त की सुख-सुषमा छायी रहती है। और अत्यन्त पतिव्रता होने पर भी, वह शिवानन्दा लोक में सर्वप्रिय मानी जाती है । पुत्र-कलत्र, श्री सम्पत्ति, सौन्दर्य, इष्ट-मित्र, स्नेही-परिजन, सभी दृष्टियों से आनन्द गृहपति का जीवन इतना भरापूरा है, कि उसे देख कर यह मरण-धर्मा संसार भी सुख का धाम प्रतीत होने लगता है ।
. . 'दीर्घकाल तक ऐसा यकसा सुख भोगने के बाद, आनन्द गृहपति के मन में एक अनजान खटक पैदा हो गई है। उसके जी में रह-रह कर एक शंका की फाँस गड़ उठती है, कि यह सुख की धारा अचानक कहीं भंग न हो जाये । उसे यह सुख अनिश्चित और पराधीन लगने लगा है । जाने कब यह इन्द्रधनुष विलय हो जाये, क्या भरोसा ? संसार में सर्वत्र भंगुरता और मृत्यु देखने में आती है। उसकी भयानकता, किसी आधी रात नींद उड़ने पर आनन्द के अवचेतन में अचानक साकार हो उठती है। यह सारा वैभव जाने कब हाथ से निकल जाये। शिवानन्दा जैसी सुन्दरी स्नेहिनी पत्नी से कभी भी वियोग हो ही सकता है । . . 'तो वह कैसे जी सकेगा? सारा सुख ऐश्वर्य तब मिट्टी हो जायेगा । · · ·और कभी उसका स्वयं का शरीर ही दगा दे जाये तो? तो · · ·तो · · ·तो? और उसके लिये जीना मुहाल हो गया। अस्तित्व के मूल में ही बिंधी इस त्रासदी से कौन बच सकता है ? यह एक अनिवार्य नियति है। तो क्या इससे त्राण का कोई उपाय नहीं ?
.. इस निरन्तर की प्रश्न-वेदना के चलते. आनन्द गृहपति को अपने प्राप्त सुख की सीमा का बोध अत्यन्त स्पष्ट हो गया है । उसे प्रत्यक्ष दीखने लगा है, कि यह सुख सपाट और सतही है । यह आदि, मध्य और अन्त में यकसा सघन नहीं है, नीरन्ध्र नहीं है । यह चौतरफ़ा और समूचा नहीं है । इसमें गहराई, ऊँचाई और विस्तार नहीं है। हर ऐहिक सुख भोगते समय उसे लगता है, कि यह अधूरा है, परिपूर्ण नहीं है। सब कुछ भोग कर भी प्यास बनी ही रह जाती है । इस सुख में निराकुलता, समरसता नहीं । अबाध तन्मयता और निश्चिन्तता नहीं। निविड़तम विषय-सुख भोगने के क्षणों में भी एक आर्तता, एक कसक, एक टीस भीतर बराबर जारी रहती है । हर ऐन्द्रिक सुख भोग लेने के उपरान्त उसका स्वाद ग़ायब हो जाता है । एक निःसारता,
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