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आनन्द गाथापति मूलतः ज्ञातवंशी क्षत्रिय है। और इस नाते वह स्वयं भगवान महावीर का ही सगोत्रीय होने में भारी गर्व अनुभव करता है । लेकिन पार्वानुयायी जिनधर्मी होने से, जीव-दया पालन के अतिरेक के कारण वह अपनी कुलजात क्षात्रवृत्ति से विच्युत हो गया है । सो वह अब सुविधाजीवी वणिक व्यापारी बन गया है। ब्रह्मज्ञान की उपासना अति पर पहुँच कर कोरा ब्रह्मविचार रह गयी थी। उसमें आचार की सर्वथा अवज्ञा हो गई थी। इसी से महाश्रमण पार्श्व ने जब इस अति के निवारण के लिये आचार का आग्रह किया, तो अनुयायियों के बीच वह दूसरी अति के छोर पर पहुँच गया। आचार पर इतना अधिक जोर आ गया, कि रूढ़ व्रत-नियम का पालन ही एक मात्र धर्म हो रहा । उसका चरम प्राप्तव्य जो आत्म या परब्रह्म है, वह लुप्तप्राय हो गया ।
इसी अति के बिन्दु पर पहुँच कर, अतिरंजित जीव दया पालन के कारण ब्राह्मण और क्षत्रिय भी अपने-अपने स्वधर्मों से विचलित होकर, सुविधा और स्वार्थजीवी नर्म वैश्यवृत्ति से ग्रस्त हो गये । सो जिनों का ब्रह्मतेज और क्षात्रतेज से संयुक्त आत्मधर्म, बाद के कालों में मात्र व्यवसायी वणिकों का मुलायम और स्वकेंद्रित आचार-चौविहार मार्ग होकर रह गशा । जीव-दया की ओट में कायरता और स्वार्थ ही सर्वोपरि हो उठे ।
ज्ञातवंशी क्षत्रिय आनन्द गृहपति में इतिहास का वह अतिगामी स्खलन और व्यतिक्रमण स्पष्ट रूप से लक्षित होता है। उससे पता चलता है, कि क्यों जिनेश्वरों का आत्मकामी धर्म, नितान्त अर्थकामी वणिकों की ऐकान्तिक विरासत हो कर रह गया ।
वह आनन्द गृहपति पास-पड़ोस के सन्निवेशों में चतुर-चूड़ामणि संघवी के रूप में प्रतिष्ठित है। एक सयाने परामर्शदाता के रूप में उसकी ख्याति दूर-दूर तक फैली है । अनेक राजा, युवराज, तलवर, मांडबिक, कौटुम्बिक, इभ्यगण, श्रेष्ठि, सामन्त, सेनापति और सार्थवाह उससे सलाह लेने आते हैं । वह आवश्यक कामों, विवाहादि प्रयोजनों, चिन्तनीय बाबतों, खानगी रखने योग्य कौटुम्बिक मामलों, रहस्यों, निर्णयों, व्यवहारों, गंभीर स्थितियों में पूछने योग्य परामर्श लेने योग्य माना जाता है । सारे ही लोकजन उसे प्रमाण रूप, आधार रूप, आलम्बन रूप, चक्षु रूप समझते हैं।
उसके संसार सुख में कहीं अणु मात्र भी कमी नहीं है । कोई भी दुःख, अभाव उसे अनजाना है। उसकी भार्या शिवानन्दा, उससे चन्द्रमा के संग
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