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इतिहास का अग्नि स्नान
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तीर्थंकर महावीर ग्रामानुग्राम विहार करते वैशाली की ओर बढ़ रहे हैं । भगवान की गति का अनुगमन करना तो साध्य नहीं । फिर भी यथा शक्य त्वरित गति से सहस्त्रों साधु-साध्वियों का विशाल संघ उनका अनुसरण कर रहा है। अचानक मार्ग में दूर पर वाणिज्य ग्राम के श्रेष्ठियों की ऊँची श्वेत अट्टालिकाएँ चमकती दिखाई पड़ीं । जिन चैत्यों के शिखरों की रत्नविभा से आकाश रंगीन चित्रपट सा भास्वर हो उठा है ।
वाणिज्य ग्राम, पार्श्वपत्य जैन श्रावक श्रेष्ठियों और सार्थवाहों का एक शक्तिशाली केन्द्र है । उनके तहखानों में अकूत सुवर्ण और रत्न - सम्पत्ति भरी पड़ी है । मानो सारे संसार का धन अपने भंडारों में बटोर लेने की एक होड़सी इन व्यापारियों के बीच बदी हुई है ।
इसी वाणिज्य ग्राम में रहता है, प्रसिद्ध सार्थवाह आनन्द गृहपति । हिमाद्रि के पर्वती प्रदेशों से लगा कर सुदूर दक्षिणावर्त के कुमारी अन्तरीप तक, ओर पूर्व में ब्रह्मदेश से लगा कर, पश्चिम में ठेठ गान्धार तक उसके व्यापारी साथ का सिलसिला सदा जारी रहता है । उसके वाणिज्य पोत ताम्रलिप्ति से, दक्षिण में ताम्रपर्णी तक, और पूर्व में सुवर्णद्वीप और महाचीन तक के समुद्र पत्तनों में लंगर डालते हैं । तो पश्चिम में आर्द्रक, मिस्र, पारस्य और यवन देशों के समुद्रों में भी उसके जहाज़ी बेड़े छाये हुए हैं ।
आनन्द गृहपति के यहाँ चार करोड़ सुवर्ण मुद्राएँ भंडार में संचित हैं । दूसरी चार करोड़ चक्रवृद्धि ब्याज पर सारे देश के बाजारों में चलती हैं । तीसरी चार करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ उसके विशाल व्यापार व्यवसाय और घर खर्च में नियोजित हैं । उपरान्त दस-दस हजार गायों के चार व्रजों का वह मालिक है । उसके खेत खलिहानों का पार नहीं । आसपास के प्रदेशों में अनेक ग्रामों और भूमियों का वह स्वामी है।
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