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मृगावती नम्रीभूत हो रहीं । उन्होंने कोई प्रत्युत्तर न दिया । उनमें कोई प्रतिक्रिया न हुई । वे अनायास अपने में प्रतिक्रमण करती चली गईं। और अनायास वे समत्व में स्थिर हो गईं ।
हठात्, उन्हें लगा कि कोई अरूप सूर्य उनकी आँखों में झाँक रहा है। अँधेरा भी नहीं है, उजाला भी नहीं है । कुछ भी अदृश्य नहीं रह गया है । वे अपनी तृण - शैया में, सब कुछ को राई - रत्ती देखती हुईं, आनन्द में मगन हो रहीं । पता नहीं, इस अवस्था में कितनी रात बीत गयी ।
' अचानक मृगावती को दिखायी पड़ा, कि भगवती चन्दन बाला गहरी निद्रा में लीन हैं । और उनकी ओर एक महासर्प तेजी से रिलमिलाता चला आ रहा है।
मृगावती तुरन्त सर्प को लाँघ कर भगवती के पास पहुँच गयीं। उनका चरण-स्पर्श कर उन्हें सावधान किया :
'भगवती माँ, क्षमा करें मुझे । एक महासर्प आपकी शैया की ओर आ रहा है !
'अरे इस सूचीभेद्य अन्धकार में तुम्हें सर्प कैसे दिखाई पड़ा, भद्रे ? '
'मुझे सब कुछ दीख रहा है, माँ । कोई शाश्वत प्रकाश सब ओर छाया है । कुछ भी अदीठ न रहा । यह क्या हो गया, माँ मुझे ? मेरे आनन्द का पार नहीं है ।'
'आर्या मृदावती प्रभु की कैवल्य ज्योति में उत्क्रान्त हुईं ! मुझ से भगवती का आशातना हो गई । क्षमा करें, देवी ! '
और महावीर की सर्वोपरि सती भगवती चन्दन बाला अपनी शिष्या मृगावती के प्रति प्रणिपात में नत हो गयीं ।'
मृगावती अचल, निस्तब्ध देखती रह गयीं ।
हठात् उस अभेद्य अन्धकार में एक ज्योति-घट विस्फोटित हुआ । भगवती चन्दन बाला ने देखा — कि वे सब कुछ को उजाले की तरह स्पष्ट देख रही हैं । ' और वह सर्प मृगावती का वन्दन कर, स्वयम् देवी चन्दन बाला के सामने फणा - मण्डल उन्नत कर नमित हो गया है ।
• भगवती चन्दना ने देखा, कि उनकी आँखों से प्रभु की कैवल्य ज्योति अविरल बह रही हैं । उसमें सूर्य और चन्द्रमा, रात और दिन सब लुप्त हो गये हैं ।
'आज उन्हें यह क्या हो गया है ?
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